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________________ [८६] कृपालुदेवने मुझे कहा उसके अतिरिक्त बात नहीं। गुरुदेव सहजात्मस्वरूप राजचंद्रजी कृपालु देव हैं। आत्मा है। जैसा है वैसा है...एक मृत्युमहोत्सव । *'धिंग धणी माथे किया रे कुण गंजे नर खेट ।' दूसरा अब नहीं...उसीकी श्रद्धा और प्रतीति । बस, आणाए धम्मो आणाए तवो, मुद्दा यही, बात यही है। दूसरी नहीं ली। दृष्टिकी भूल नहीं है। जो है सो है। एक परमकृपालुदेव-१'था, होय तेम थाजो रूडा राजने भजीए।' यह पुद्गल है, आत्मा नहीं। संयोग है, संयोगका नाश है। हीराभाई झवेरीको भी लेना है, लगन है। परमकृपालुदेवको पकड़ रखा है। जिसका विश्वास इन्हें मान्य है। विराम लेता हूँ। विराम लेता हूँ। क्षमा चाहता हूँ। एक आत्माके सिवाय अन्य बात नहीं है। परमकृपालुदेवने कहा था 'मुनियों, इस जीवको (प्रभुश्रीको) समाधिमरण सोभागभाईकी भाँति होगा।' सोभागभाईको जो ध्यान था वही है। अन्य कुछ मान्य नहीं। अन्य कुछ समझते नहीं। परमकृपालुदेव मान्य हैं। पुद्गलका टकराना, राखकी पुडियाँ । फेंक देने योग्य है। परमकृपालुदेवकी दृष्टिवाले सभीका कल्याण है। भावना ही बड़ी बात है। फूल नहीं तो फूलकी पंखुडी। कृपालुदेवकी दृष्टिपर सब आते हैं। सबका काम हो जायेगा । अन्य लाखों हों तो भी क्या ?" __ सं. १९९२ की वैशाख सुदी ८ के दिन नित्यनियमानुसार देववंदनकर अन्तेवासियोंको 'अपूर्व अवसर' का पद बोलनेको कहा। कृपालुदेवका यह भावनासिद्ध पद पूर्ण होनेपर रात्रिको आठ बजकर दस मिनिटपर बयासी वर्षकी आयुमें इस महापुरुषका पवित्र आत्मा परम समाधिमें स्थित होकर, नाशवान देहका त्याग कर परमपदके प्रति प्रयाण कर गया। अनन्तबार अभिवंदन हों इन कल्याणमूर्ति प्रभुश्रीके परम पुनित पदारविन्दको! और उनके द्वारा दरशाये गये दिव्य शाश्वत मोक्षमार्गको! यो प्रभुश्रीने सं. १९७६ से १९९२ तक आश्रमके जीवनप्राण बनकर उसे सत्संग, भक्ति और मोक्षमार्गसाधनाका अनुपम जीवित धर्मस्थान बनाया और हजारों मोक्षाभिलाषी भव्यात्माओंको सन्मार्ग-सन्मुख किया। उन्होंने संसारतापसे संतप्त भव्योंको शीतल करने हेतु निष्कारण करुणासे प्रसंगानुसार जो-जो बोधवृष्टि की, उस बोधामृतवर्षामेंसे समीपवर्ती मुमुक्षुओंने कभी-कभी यत्किंचित् यथाशक्ति ग्रहण कर जो संग्रह किया वही इस उपदेशामृतमें प्रगट हुआ है। __अध्यात्ममूर्ति, परमज्ञानावतार, सनातन वीतरागमार्णोद्धारक अपने सद्गुरु श्रीमद् राजचंद्रसे आत्मज्ञानदशा प्राप्त कर प्रगट अन्तरात्मा होकर विचरते हुए परम पूज्य श्री प्रभुश्रीजीकी उत्तरावस्थाका जीवन, इस आश्रममें उनके स्वरूपजीवन संबंधी अविरत चले आ रहे बोध (यह * भावार्थ-समर्थ पुरुषको सिरपर रखा है फिर जगतकी क्या चिंता? १. अर्थ-जो होना हो सो हो-हम तो उत्तम राजको भजते रहेंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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