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________________ [८४] पट्टणी आदि, श्री हीरालालसे प्रभुश्रीका माहात्म्य सुनकर प्रभुश्रीके पास बारंबार आते और घण्टों तक बैठकर बोध सुनते। उनके निमित्तसे अद्भुत बोधकी वृष्टि होती। लीमडीके ठाकुरकी इच्छासे प्रभुश्री 'श्री आत्मसिद्धि'का अर्थ भी समझाते। यों सबको संतोष और आत्मलाभ मिलता। आबू-निवासके अंतिम दस दिनोंमें प्रभुश्री आबूके पहाड़पर भिन्न-भिन्न दिशाओंमें टीलाओं पर, गुफाओंमें, जंगलोंमें निकल पड़ते। उनके पीछे पीछे मुमुक्षुसमुदाय भी निकल पड़ता। फिर वहाँ भक्तिका अपूर्व रंग जमता। इसी प्रकार एक बार सभी 'अनादरा पॉइन्ट' गये थे। वहाँ भक्तिके पद बोलनेके बाद गोल गोल घूमते हुए 'मूल मारग सांभळो जिननो रे' यह पद प्रभुश्री स्वयं बुलवाते और सभी पीछे बोलते थे। यों भक्तिका रंग जमा था। भक्ति पूरी होनेपर सबको मंत्र-स्मरण या 'शुद्धता विचारे ध्यावे०'का रटन करते-करते वापस लौटनेकी आज्ञा हुई थी। इसी प्रकार अर्बुदादेवी, सनसेट पॉइन्ट, रामकुण्डपर देडकीशिला, क्रॉस पॉइन्ट, पाण्डव गुफा, ट्रेवर सरोवर और वसिष्ठ आश्रम आदि स्थानोंपर घण्टोंतक भक्तिका रंग जमता और सबको अद्भुत धर्मका रंग चढ़ता। वसिष्ठ आश्रममें आत्मसिद्धिकी पूजा चल रही थी तब प्रभुश्री अत्यंत उल्लासमें आकर +"कोई माधव लो, हारे कोई माधव लो। माधवने मटुकीमां घाली, गोपीजन लटके चाली। हारे कोई माधव लो, अचल प्रेमे माधव लो॥" इस प्रकार स्वयं बोल उठे। फिर उपदेश दिया, “भक्ति तो अच्छी हुई। निर्जरा हुई, पर प्रेम नहीं आया, प्रीति नहीं हुई। किसपर? एक आत्मा पर प्रेम प्रीति करनी है।" जब सभी वापस निवासपर लौट आये तब सबसे पूछा, "वहाँ क्या देखा? किसकी इच्छा की? आत्मा देखा? किसीने आत्मा देखा?" इस प्रकार लगभग तीन मास आबू रहकर ज्येष्ठ वदी ८के दिन प्रभुश्री वहाँसे सिद्धपुर श्री रत्नराज स्वामीके आश्रममें आये और वहाँ एक-दो दिन रुककर अहमदाबाद होते हुए आश्रममें लौटे। २१ सं.१९९२ के माघ सुदी १५ से प्रभुश्रीका स्वास्थ्य नरम हुआ। डॉक्टरोंने संपूर्ण आराम करनेको कहा। दर्शन, बोध, समागम सर्व लाभ बंद हुए। बादमें मात्र दिनमें एक बार दर्शन करनेका खुला रखा। ___ + गोपियाँ माधव अर्थात् कृष्णरूपी दहीको मटकीमें डालकर बेचने चली है। माधवको लेकर नखरे करती हुई अदापूर्वक गलियोंमें घूम रही है और चिल्ला रही है कि कोई माधव लो, अचल प्रेम रूपी किंमत देकर माधव ले लो। भावार्थ यह है कि भगवान ऊपर अचल प्रेम करनेसे भगवानकी प्राप्ति होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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