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________________ [ ८३ ] शारदाबहनने कहा, 'भाई, अगास आश्रमसे प्रभुश्री आये हैं ।" यह सुनकर वे भाई तो बहुत ही आनन्दित हो उठे और प्रभुश्रीके प्रति अत्यंत आभार प्रदर्शित करते हुए हाथ जोड़कर नमस्कार किया । फिर प्रभुश्रीने धारावाही अद्भुत उपदेश दिया । श्रेणिक राजाके पूर्वभवका दृष्टांत दिया । फिर कहा - " श्रेणिक राजाने भीलके भवमें मात्र कौएके मांसका त्याग ज्ञानी मुनिके समक्ष किया था जिससे वह मरकर देव हुआ और फिर श्रेणिक हुए, एवं अनन्त संसारको छेदकर एक भवमें मोक्ष जायेंगे ।" ज्ञानीपुरुषकी आज्ञाका आराधन करनेका ऐसा अचिन्त्य माहात्म्य सुनकर श्री पंडित बहुत उल्लसित हुए और उन्हें अपने आत्महितकी भावना जाग्रत हुई । अतः प्रभुश्रीने उन्हें सातों व्यसनोंका त्याग करवाया तथा मंत्रस्मरण देकर देह और आत्माकी भिन्नताके विषयमें उपदेश दिया । इससे वे अत्यधिक उल्लासमें आ गये । यों धारावाहिक सतत बोधवृष्टि कर अपूर्व जागृति देकर, समाधिमरणके सन्मुख कर, अपूर्व आत्महितमें प्रेरित कर प्रभुश्री वापस लौटे। कुछ मुमुक्षुओंको उनके पास आत्मसिद्धि आदिका स्वाध्याय करनेके लिए वहाँ रखा। वे ज्ञानीपुरुषके वचन सतत उन्हें सुनाते रहें। इससे वे भाई व्याधि या मरणके दुःखको भूलकर उन बोधवचनोंमें ही तल्लीन होते गये और रोग, मरणादि तो शरीरमें ही हैं, मैं तो उनसे भिन्न 'शुद्ध बुद्ध चैतन्यघन, स्वयंज्योति सुखधाम' यों आत्मसिद्धिकी गाथामें बताया वैसा हूँ। ऐसा मानकर आत्मभावनामें लीन होने लगे । ऐसी उत्तम भावनामें उसी रत्रिमें उनका देहत्याग हो गया और उन्होंने अपना अपूर्व हित साध लिया । फिर प्रभुश्री अहमदाबादसे थोड़े मुमुक्षुओंके साथ वढवाण केम्प आये । वहाँ सेठ श्री जेसंगभाई उजमसीभाईके बंगले में थोड़े दिन रहकर, वहाँ सबको सत्संगका लाभ देकर वांकानेरके नगरसेठ श्री वनेचंद देवजीभाईके आग्रहसे वांकानेर गये । वहाँसे सभी मोरबी होकर परमकृपालु देवकी जन्मभूमि ववाणिया गये। वहाँ भक्तिभावना की । वहाँसे वापस वांकानेर होकर आश्रममें आये । सं. १९९१ के फाल्गुन वदी ५ के दिन प्रभुश्री आबू पधारे। वहाँ श्री हीरालाल शाहने पहलेसे ही पहुँचकर 'श्रबरी बंगला' तैयार रखा था वहाँ लगभग तीन मास रहना हुआ । इसी बीच आहोरके मुमुक्षुभाइयोंकी अत्यंत आग्रहभरी विनतीके कारण प्रभुश्री, श्री हीरालाल, श्री नाहटाजी आदि सभी मुमुक्षुओंके साथ आहोर आये और वहाँ ग्यारह दिन रुके । वहाँ अनेक जीवोंको धर्मका रंग चढ़ाकर सन्मार्ग- सन्मुख किया। फिर चैत्र वदी २ के दिन आहोरसे वापस आबू आ गये । आबू निवास दरम्यान अनेक बार देलवाडाके मंदिरोंमें जाकर भक्तिचैत्यवंदन आदि करते । अचलगढ़के मंदिरमें भी श्री आत्मसिद्धिजीकी पूजा पढ़ायी गयी । प्रभुश्री वहाँ आठ दिन रहे थे । आबू - निवासके समय लीमडी, जसदण, साणंद आदिके राजा तथा भावनगरके दीवान श्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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