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[७८] सं.१९८६ के पौष सुदी १५ के दिन श्री माणेकजी सेठ आश्रममें आये थे। इन्दौर जाते समय वे प्रभुश्रीके पास दर्शनके लिए गये और कहा कि मैं इन्दौर जा रहा हूँ, तब उनके पूर्वके किसी महान पुण्ययोगसे प्रभुश्रीने उन्हें अपूर्व बोध दिया। वे भी बोधमें ऐसे तल्लीन हो गये कि गाड़ीका समय भी भूल गये । फिर प्रभुश्रीने कहा कि गाड़ी तो गयी! तब उनके मुँहसे सहज ही निकल गया कि यह गाड़ी गयी वह तो वापस आ जायेगी, परंतु यह गाड़ी (शरीर) क्या वापस आयेगी? उसके बाद मानो अंतिम शिक्षा दी जा रही हो वैसा अद्भुत बोध दिया, फिर वे दूसरी गाड़ीसे इन्दौर गये।
माघ वदीमें उनका स्वास्थ्य नरम हुआ। एक मुमुक्षु उनके पास गये थे उनसे उन्होंने कहा कि इस वर्षमें मेरी घात है, अतः देहका भरोसा नहीं है। इसलिये तुम यहीं रहो और मुझे निरंतर मंत्रस्मरण कराते रहो। मुझे भान न हो तब भी मेरे पास बैठकर तुम स्मरण बोलते ही रहो, अन्य किसी काममें न जाओ परंतु स्मरणका जाप करते ही रहो।
माघ वदी ७को सगे-संबंधी तथा गाँव-परगाँवके मुमुक्षुओंको बुलाकर क्षमायाचना कर ली।
माघ वदी ८ के दिन उनका स्वास्थ्य अधिक बिगड़ा। दोपहर १२ बजेके बाद उन्होंने अपने हाथसे लिखकर आश्रममें एक तार भेजा। उसमें उन्होंने लिखा कि यह मेरी अंतिम प्रार्थना है : आपश्रीका आशीर्वाद और शरण मुझे अखण्ड रहे। __ आश्रममें तार मिलते ही प्रभुश्रीजीने तारसे उत्तर दिया कि "आत्माका मरण है ही नहीं, मंत्रमें सब कुछ निहित है अतः मंत्रमें ध्यान रखें। ब्रह्मचारीजी आ रहे हैं।" तार पहुँचा, स्वयं पढ़ा, जिससे विशेष जागृति आयी, उल्लासभाव बढ़ गया। - उनके पास निरंतर मंत्रका जाप करनेके लिए रहे हुए मुमुक्षुभाईने मंत्रकी अखण्ड धुन लगायी
और श्री माणेकजी सेठका पवित्रात्मा परम जागृतिपूर्वक उसीमें एकाग्र और समाधिभावके सन्मुख होकर रातके ११ बजे अपना अपूर्व हित करके देह त्यागकर चला गया।
पूनामें प्रभुश्रीजीने श्री माणेकजी सेठके यहाँ ही चातुर्मास किया था। तभी उन्हें सत्धर्मका रंग चढ़ाया था। वह दिन-प्रतिदिन बढ़ता गया था। तन-मन-धन-सर्वस्वसे उन्होंने संतकी सेवा करनेमें कमी नहीं रखी थी। उनकी सरलता, सद्गुरु परमकृपालुकी आज्ञामें एकनिष्ठता, उदारता, लघुता, अनुकंपा, वात्सल्य और आश्रमकी उन्नतिके लिए सर्वस्व अर्पण करनेकी तत्परता आदि गुण प्रशंसनीय है।
सं. १९८७ के मार्गशीर्ष वदी ३० के दिन सायं चार बजे आश्रममें श्री रवजीभाई कोठारीका समाधिमरण हुआ, वह आश्रमकी एक अपूर्व घटना थी। ऐसा संयोग किसी विरले जीवको ही मिलता है। जिस जीवके महा पुण्यानुबंधी पुण्यका उदय हो उसे ही ऐसी अनुकूलता सर्व प्रकारसे
आ मिलती है। निवृत्ति क्षेत्र और प्रभुश्रीकी आत्मजागृति एवं आश्रमवासी मुमुक्षुभाई बहनोंका उस मुमुक्षु-जीवके प्रति भक्तिभाव, यह सब योग्य अनुकूलताएँ थीं। ___ मृत्युके तीन-चार दिन पहले उनके समीप 'क्षमापना' प्रार्थना और प्रतिक्रमण आदि, पापकी क्षमा माँगनेके लिए दीनताके 'बीस दोहे' तथा आत्मजागृतिके लिए 'आत्मसिद्धि', 'अपूर्व अवसर'
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