SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [७७] प्रायः सभीको धर्मकी पकड़ बहुत दृढ़ होती है, जिससे अपने माने हुए धर्मकी पकड़को छोड़कर ज्ञानियों द्वारा उपदिष्ट सनातन सत्धर्मके प्रति श्रद्धान होना, पकड़ होना अत्यंत विकट है। ऐसा होते हुए भी ज्ञानीपुरुषका माहात्म्य, उनका योगबल भी ऐसा अचिन्त्य प्रभावशाली होता है कि अनेकोंको सत्धर्मका रंग चढ़ा देता है। पू. प्रभुश्रीका भी ऐसा ही अद्भुत सामर्थ्य दृष्टिगोचर होने लगा। हजारों जैन-जैनेतरोंको उन्होंने सच्चा जैन बनाया। उनको मंत्रदीक्षा दी, सात व्यसन और सात अभक्ष्यका त्याग करवाया, व्रत-प्रत्याख्यान देकर सत्श्रद्धासहित भक्तिमार्गके रसिक बनाया। अनेक कुमारिकाओंको सत्का ऐसा अद्भुत रंग लगा कि उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत स्वीकार किया। इसी प्रकार अनेक युवा दम्पतियोंने भी भोगसे अनासक्त होकर ब्रह्मचर्यव्रत अंगीकार कर सत्साधनामें जीवन अर्पण करना स्वीकार किया। यों अनेकानेक आत्मार्थी ब्रह्मचर्यव्रतविभूषित हुए। अब आश्रममें जीवन अर्पण करनेवाले ब्रह्मचारियोंके लिए अलग व्यवस्था की गयी। इसी प्रकार ब्रह्मचारिणी बहनोंके लिए भी आश्रममें अलग निवासस्थानकी व्यवस्था हुई। कुछ भावुक जिज्ञासु भी व्रतनियम धारण कर आश्रममें स्थायी रहने लगे। कोई कोई विरक्त मुमुक्षु गृहस्थ होने पर भी व्रतनियम धारण करके आश्रममें सहकुटुंब रहने लगे। यों पचास-सौ व्यक्ति स्थायी निवास करने लगे और सत्साधनामें तत्पर हुए, जिससे आश्रम सत्संग और भक्तिका जीता-जागता नमूना हो गया। जैसे-जैसे अनुयायियोंकी संख्या बढ़ती गयी वैसे-वैसे आश्रम भी बढ़ता गया। सबकी इच्छासे आश्रममें एक शिखरबंध भव्य जिनालयका निर्माण हुआ। उसमें श्रीमद्जीके बोधवचनोंके अनुसार श्वेताम्बर-दिगम्बर प्रतिमाएँ स्थापित की गयीं। इस जिनालयकी प्रतिष्ठा सं.१९८४ के ज्येष्ठ सुदी ५ के दिन प्रभुश्रीकी छत्रछायामें हुई। इस जिनालयके भूमिगृहमें एक गुरुमंदिर बनाया गया, जिसमें श्रीमद्जीकी प्रतिमा तथा एक ओर 'प्रणवमंत्र ॐकार की स्थापना उपरोक्त दिन ही की गयी। पासमें पादुकाकी स्थापना सं.१९८२के आश्विन सुदी १५ के दिन हो गयी थी। मुमुक्षुभाइयोंकी संख्या और उनकी आवश्यकतानुसार एक भव्य सभामण्डप और व्याख्यानमंदिर बनाया गया, एवं पुस्तकालयकी स्थापना भी की गयी। मुख्यद्वारके ऊपरकी देवकुलिकामें सं.१९८८के माघ सुदी १० के दिन परमकृपालुदेवकी पंचधातुकी प्रतिमाकी प्रतिष्ठा की गयी। शरीरप्रकृति बहुत अस्वस्थ रहनेपर भी परोपकार-परायण प्रभुश्रीजीने मुमुक्षुओंके आग्रहसे सं.१९८५के मार्गशीर्ष मासमें अठारह दिन भादरण, तीन-चार दिन धर्मज तथा ग्रीष्ममें दो मास भरुच, निकोरा, झघडिया, कबीरवड आदि स्थानोंमें विचरण किया। सं.१९८६में करमसद, सुणाव, वेरा, बोरसद, दाओल आदि स्थानोंमें विचरे। सं.१९८७में काविठा, सीमरडा, नडियाद, नार, अंधेरी और सं.१९८८में पेटलाद, दंताली, काविठा, सीमरडा आदि स्थानोंमें विचरण किया था। इसी बीच श्री नार मंदिरकी प्रतिष्ठा सं.१९८७के वैशाख सुदी ३ के दिन हुई थी। प्रभुश्री जहाँ-जहाँ विचरण करते वहाँ-वहाँ अनेकानेक भद्रिक जनोंको धर्मका रंग चढ़ाकर सन्मार्गके सन्मुख करते थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy