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________________ [ ७९ ] आदिका निरंतर स्वाध्याय होता था । शेष समयमें पत्र - वाचन तथा स्मरण - जाप रातदिन अखण्ड चलता रहता था । अन्त तक जागृति अच्छी रही । परमपूज्य प्रभुश्रीजीका समागम भी दिनमें दो-तीन बार नियमित होता रहता था। जब-जब परमपूज्य प्रभुश्रीजी वहाँ पधारते तब-तब उनका आत्मा बहुत उल्लसित होता और कहते कि “मैंने वेदनाके साथ युद्ध प्रारंभ किया है, एक ओर वेदनाकी तीव्रता और दूसरी ओर उपयोगकी धारा । ऐसी वेदनामें भी उपयोगकी धारा न छूट जाय इसके लिए श्री गजसुकुमार आदि महापुरुषोंके चरणोंका अवलम्बन लेता हूँ............" जिस दिन देहत्याग होनेवाला था उस दिन सायं लगभग ३ बजे पू. मुनिदेव श्री मोहनलालजीका वहाँ आगमन हुआ। उस समय उनकी आँखें बंद थीं। थोड़ी देर बाद आखें खुलीं तब उठकर दर्शन किये। सामने ताक पर परमकृपालुदेवका चित्रपट था, उसपर लगे परदेको निकलवा दिया और परमकृपालुदेवको नमस्कार किया। फिर पू. मुनिदेव ने कहा कि एकमात्र इन्हीं पुरुषकी सच्ची शरण ग्रहण कर रखने योग्य है। इसी पुरुषके प्रति सच्ची श्रद्धा रहनेसे ही इस जीवका कल्याण है। यों कहकर संथारे के संबंधमें गाथाएँ बोलकर चार शरण दिये। फिर पू. श्री सौभाग्यभाई पर परमकृपालुदेव द्वारा अंतसमयमें लिखे पत्रका वाचन किया। उस समय उनकी जागृति बराबर थी । मृत्युका कोई चिह्न दिखायी नहीं दिया । उस पत्रमें उन्होंने बराबर उपयोग रखा था । वह पत्र (कीचसौ कनक जाके, नीचसौ नरेसपद) पूर्ण होनेपर भावदयासागर परम पूज्य प्रभुश्री पधारे। इससे उनका आत्मा एकदम उल्लसित हुआ और परमकृपालुदेवके सामने अंगुली की और परमपूज्य प्रभुश्रीके सामने अंगुली कर संकेतसे बताया कि मेरा लक्ष्य आपके कथनानुसार ही है, इसके अतिरिक्त अन्य कोई ध्यान नहीं है । अर्थात् मेरे हृदयमें एकमात्र कृपालुदेवका ध्यान है । परम पूज्य प्रभुश्रीने कहा कि वही रखने योग्य है । फिर अधूरा पत्र पूरा पढ़े जानेके बाद परम पूज्य प्रभुश्रीजीने 'समाधिशतक' की गाथापरसे अंतसमयके योग्य देह और आत्माकी भिन्नताके विषयमें तथा सहनशीलता रखकर हिंमत नहीं हारनेका पुरुषार्थ और धैर्य - प्रेरक अपूर्व बोध बरसाया। यों आत्माको अपूर्व जागृति देकर उठे कि श्री रवजीभाईने अपनी धर्मपत्नीसे कहा कि कुछ अजब-गजब हुआ है ! अंतमें इतना बोलकर पाँच मिनिटमें देहत्याग कर दिया । ऐसा समाधिमरण होना उसे महान् पुण्यका उदय समझना चाहिए। उसे देखनेवाले तथा उस समागममें रहनेवाले जीव भी महाभाग्यशाली हैं । उनके समाधिमरणकी आश्रमवासी सर्व मुमुक्षु भाईबहनोंपर कोई अपूर्व छाप पड़ी थी। सभी कह रहे थे कि ऐसा अपूर्व दृश्य तो हमने पहली बार ही देखा । यहाँ विशेष क्या लिखा जाय ? जिनके हृदयमें इस समाधिमरणके दृश्यकी छाप पड़ी थी वह छाप दीर्घकाल तक रहेगी। इस संबंधमें यहाँ जो कुछ लिखा गया है वह तो उसका अंशमात्र है । क्योंकि वे अपूर्व भाव लिखे नहीं जा सकते । गूँगेके द्वारा खाये गये गुडके समान उसका अनुभव समीपवासी भाग्यवान जीवोंको हुआ और उनके हृदयमें वह अपूर्व भावसे रहा । 1 सं.१९८८ के भाद्रपद मासमें मुनिदेव श्री मोहनलालजीको मरणांतिक व्याधिका उदय हुआ । प. पू. प्रभुश्री समय- समयपर उनके पास जाते और अपूर्व जागृतिका उपदेश देते । उनको अत्यंत वेदना थी फिर भी बोधके अन्तरपरिणमनसे हृदयमें शान्तिका वेदन था । प.पू. प्रभुश्रीने एक दिन उन्हें जागृति देकर बाहर आकर कहा कि आज मुनिकी अन्तरदशा कुछ और ही हुई है । अब यदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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