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________________ [७०] वीर्यबल स्फुरित कर इस बालकको ठिकाने लानेकी अनुकंपा करके...इस बालकका श्रेय करने में आपने कुछ कसर नहीं रखी..." ___ उनके जितने अथवा उससे अधिक या कम समागममें आये मुमुक्षुओंके अन्तरंगकी उन्नति कुछ इसी प्रकारसे उस पुरुषके प्रभावसे होती रहती, इसकी साक्षी समागममें आये मुमुक्षुओंके अन्तःकरण दे रहे हैं। मात्र यह एक दृष्टांतके रूपमें उन्होंने सहज निमित्तवशात् जो भावना सत्पुरुषके समक्ष प्रगट की है वह वाचकको सत्पुरुषके प्रभावका कछ अंश समझानेके लिए लिखी है। वैसे "गुप्त चमत्कार सृष्टिके लक्ष्यमें नहीं है", “सत्पुरुषोंका योगबल जगतका कल्याण करे" ऐसे वाक्य श्रीमद् राजचंद्रने लिखे हैं वे श्रीमद् लघुराज स्वामीके समागममें आनेवाले अधिकांश मुमुक्षुओंको सहज हृदयंगत होते थे। प्रबल पुण्यके स्वाभाविक उदयसे अनेक जीवोंको अनेक प्रकारसे उनका माहात्म्य भास्यमान होनेके निमित्त बन आते थे। *१६ श्रीमद् लघुराज स्वामीका परमार्थ पुण्योदय अब कुछ अधिक प्रकाशित होने लगा। परमकृपालुदेवने उनसे कहा था कि “मुनि! दुषमकाल है, अतः जड़भरत जैसे होकर विचरण करना। ऋद्धि-सिद्धि प्रगट होगी उसे लांघ जाना। इस कालके जीव पके चीभडे (एक फल) जैसे हैं, कठोरता सहन कर सकें वैसे नहीं हैं। अतः लघुता धारण कर कल्याणमूर्ति बनेंगे तो अनेक जीवोंका कल्याण आपके द्वारा होगा।" इस शिक्षाको अंतरंगमें एक लक्ष्यपूर्वक रखते हुए, अंतरंगमें प्रगट ज्ञानदशा होनेपर भी वह दशा किसीको ज्ञात न हो इस प्रकार जड़भरत बनकर आज तक वे विचरते थे। परंतु अब नार, तारापुर, सीमरडा, काविठा आदि अनेक स्थानोंपर अपूर्व भक्तिरसका प्रवाह फैलाते, विहार करतेकरते ज्ञान-वैराग्यादि अद्भुत आत्मदशासे अनेकानेक भव्यजनोंको सद्धर्मका रंग चढ़ाते हुए वे, जो प्रीतमदासका कक्काका पद हृदयमें धारण करनेके लिए उन्हें श्रीमद्जीने लगभग पच्चीस वर्ष पहले कहा था, उन्हीं प्रीतमदासकी निवासभूमि संदेशरके निकट अगास स्टेशनके पास मानो किसी दैवी संकेतसे श्रीमद्जीके एक परम ज्ञानभक्तके रूपमें स्वयं अल्पकालमें ही पूरे वेगसे प्रसिद्ध हुए। “महात्माकी देह दो कारणोंसे विद्यमान रहती है-प्रारब्धकर्म भोगनेके लिए और जीवोंके कल्याणके लिए; तथापि वे इन दोनोंमें उदासीनतासे उदयानुसार प्रवृत्ति करते हैं।" तदनुसार अब मुमुक्षुओंकी परमार्थपिपासा प्रगट हुई देखकर उन्हें वे अद्भुत ज्ञान और भक्तिरसका पान कराने लगे, और सदैव स्वपरहितमें तत्पर रहते हुए परमकृपालुदेव-प्रतिबोधित श्री सनातन जैन वीतरागमार्गकी प्रभावनामें प्रकटरूपसे प्रवृत्ति करने लगे। अपूर्व आत्मानन्दका आस्वादन करते, आत्मज्ञानदशासे अवधूतके समान विचरण करते, वैराग्य और भक्तिकी साक्षात् मूर्तिके समान भव्यजनोंके उद्धारके __* पंद्रह खण्ड तकका लेख पू. श्री ब्रह्मचारीजी द्वारा लिखित परमोपकारी प.पू. प्रभुश्रीजीके जीवनचरित्रका यत्किंचित् संक्षिप्त आलेखन है । उनका अधूरा रहा यह कार्य इस सोलहवें खण्डसे श्री रावजीभाई देसाईने आदरपूर्वक आरंभ कर पूर्ण किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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