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________________ [६९] दूसरे, तीर्थक्षेत्र संदेसरके पूज्य भाईश्री जीजीभाई कुबेरदासने, परम उल्लास आनेसे बारह बीघाका एक खेत मात्र स्वामीश्रीजीके उपयोगके लिए आश्रम बनवाने हेतु अनायास ही, किसीकी प्रेरणाके बिना नैसर्गिक भावसे श्री स्वामीजी श्री लघुराज आश्रम के नामसे अर्पण किया। उसी समय उनके निकट संबंधी श्रीमंत गृहस्थ भाइयोंने हजार-हजारकी रकम लिखायी तथा मुंबई, नार, काविठा, मंडाला आदि स्थानोंके भाइयोंने मिलकर लगभग सत्रह हजार रुपयेका चंदा उसी समय आधे घण्टेमें स्वाभाविकरूपसे लिखा दिया था। तत्संबंधी कार्य अभी चालू है। यह जो उपरोक्त वृत्तांत आपको लिखा इस संबंधमें परमोपकारी स्वामीश्रीजीकी कोई दृष्टि नहीं है, किन्तु मुंबई तथा संदेसरवालोंकी दृष्टिमें विचार होनेसे उनकी इच्छापूर्वक भक्तिभावसे काम हुआ है वह आपश्रीको विदित किया है जी..." संदेसरमें हुई इस भक्तिका प्रभाव मुमुक्षुओंपर कैसा हुआ उसका वर्णन शब्दों द्वारा होना संभव नहीं है, किन्तु बगसराके एक मुमुक्षुभाई कल्याणजी कुंवरजी उस भक्तिमें उपस्थित थे, उन्हें इससे कैसा लाभ हुआ उसका वर्णन–अमाप उपकारकी स्मृति और दीक्षाके लिए विनतीके रूपमें विस्तारपूर्वक लिखा था उसमेंसे कुछ ही भाग यहाँ दिया है। एक मुमुक्षुके इतिहासमेंसे उन सत्पुरुष श्री लघुराज स्वामीके प्रति अनेक मुमुक्षुओंके हृदयमें तन्मय शरणभाव उस समय कैसा होगा वह स्पष्ट प्रदर्शित होता है "यह हुंडावसर्पिणी काल दुषम कहा गया है जो पूर्ण दुःखसे भरपूर कहा जाता है। ऐसे कालमें चौथे कालके समान सत्पुरुषका योग आदि अनुकूलता महान पुण्यानुबंधी पुण्यसे प्राप्त होती है। ऐसे कालमें इस मनुष्य देहमें परमकृपालुदेवके मार्गकी प्राप्ति और आप कृपालु, परमकृपालु, दयालु प्रभुश्रीजीका सत्समागम, इसपर विचार करनेसे अपूर्व शान्ति प्राप्त होती है। आप प्रभु तो कृपाके सागर हैं। आपश्रीकी कृपासे जिस प्रकार आत्मस्वभाव समझमें आया है, समझमें आ रहा है और समझमें आयेगा, उस आत्मस्वभावका वर्णन करनेकी हे प्रभु, इस बालकमें अभी शक्ति नहीं है। हे प्रभु, उसके चित्रकार तो आप स्वयं ही हैं।...समस्त दुःखोंसे मुक्त करने और आत्मा अर्पण करनेमें हे प्रभु, आप स्वयं ही समर्थ हैं। मुझे आपश्रीके साथके संयोगमें जो जो अनुभव प्राप्त हुआ है उस अनुभवके अनुसार आपश्रीमें जो आत्मशक्ति प्रकाशित हुई दिखायी दी है, वैसी अन्य किसी स्थानपर मेरे देखनेमें या जाननेमें नहीं आयी। और इसीलिए मैं अपनेको महा भाग्यशाली मानता हूँ...अनन्त सुखका धाम बने ऐसी शक्ति हे प्रभुश्री! आपमें ही दिखायी देती है, अतः इस दीन बालककी वैसा होनेकी आप कृपालुश्रीके पास शुद्ध अन्तःकरणसे और शुद्ध भावसे याचना है। जिस प्रकारकी याचना है उसी प्रकारका दान देनेमें आपश्री समर्थ हैं । अतः वह...इस बालकको प्रदान करनेके लिए हे प्रभु! प्रसन्न हों, प्रसन्न हों, यही याचना...मेरे सद्गुरुदेव श्री शुभ मुनि महाराजके स्वमुखसे, आपश्रीसे अत्यंत लाभका कारण होगा ऐसा जाना था... यह बालक अपनी समझके अनुसार ऐसा मानता था कि मैं सन्मुख प्रवृत्ति कर रहा हूँ, परंतु वह सब समझका फेर था, और मेरी विमुख प्रवृत्तिको सन्मुख बनानेके लिए आपश्रीने अगाध परिश्रम उठाया है जी। कभी नरमाईसे, कभी धीरजसे, कभी सरलतासे, कभी शांतिसे, कभी जोरसे-यों जिस जिस समय आपश्रीको जैसा जैसा योग्य लगा, उस-उस अवसर पर उस प्रकारका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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