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[७१] लिए निरंतर निष्काम करुणा बरसाते इन परोपकारशील संतशिरोमणि महात्माके दर्शन, समागम, बोधके इच्छुक अनेकानेक भव्यजन उनके सामीप्यको प्राप्त कर आत्मश्रेय साधनेकी उत्कण्ठावाले दिखायी देने लगे।
इस संसारके दुःखदावानलमें निरंतर जलते जीवोंको एक शांत रसमय आत्म-उपदेशरूप अमृतवृष्टिसे शांत शीतल कर दे ऐसे इन महात्माकी अद्भुत ज्ञानदशा और प्रतिभाशाली व्यक्तिप्रभावसे आकर्षित होकर उनके सान्निध्यमें आत्मश्रेय साधनेमें तत्पर अनेक मुमुक्षुओंकी यह इच्छा थी कि अब ये महात्मा किसी एक स्थानपर स्थिर रहें और उनके लिये आश्रम जैसा कोई सत्संगधाम बने तो हजारों धर्मेच्छुक जीवोंको इच्छित श्रेयकी प्राप्ति होगी। ___ सभीकी ऐसी उत्कट इच्छामेंसे अगास स्टेशनके पास इस आश्रमका उद्भव हुआ। परिषहउपसर्गके कालमें श्रीमद्का बोध समश्रेणीसे हृदयंगम करनेके लिए मुख्यतः जंगलोंमें विहार करनेके कारण उन्हें वनवासी मुनिका बिरुद मिला हुआ था। अब वे आश्रमके अधिष्ठाताके रूपमें सामने आये और चरोतरमें जंगल जैसा असंग आध्यात्मिक वातावरण निर्माण कर उसमें प्राण पूरे। दूध पर आनेवाली मलाईके समान चरोतरका यह प्राणवान आश्रम उनके उत्तर जीवनमें मधुर मिष्ट आम्रफल जैसा बना।
श्री लघुराज स्वामीकी छत्रछायामें इस आश्रमकी उत्पत्ति हुई जिससे भक्तजनोंने प्रारंभमें आश्रमका नाम श्री लघुराज आश्रम रखा। किन्तु अपना नाम, स्थापना या चित्रपट भी नहीं रखनेकी इच्छावाले केवल निःस्पृह और परमगुरुभक्त महर्षि श्री लघुराज स्वामीने सूचित किया कि “अपना सहज परमात्मस्वरूप भजते हुए श्रीमद् राजचंद्र द्वारा परमार्थसे जिस किसी मुमुक्षुका या जनसमुदायका कल्याण हुआ है उसका ऋण किसी प्रकार नहीं चुकाया जा सकता। उस कल्याणका स्वरूप सहजमें लक्ष्यमें भी नहीं आ सकता। गुरुगमसे उस क्षेत्रमें प्रवेश करनेसे समय आनेपर समझमें आता है, ऐसे कल्याणका यत्किचित् स्मरण प्रत्युपकार दिखानेके लिए श्रीमद्जीके इस स्थूल कीर्तिस्तम्भका नाम 'श्री सनातन जैन धर्म श्रीमद् राजचंद्र आश्रम' रखा जाय।" इसलिये उनकी इच्छानुसार इस आश्रमका नाम रखा गया। यह आश्रम धीरे-धीरे बढ़ते हुए एक छोटे गोकुल गाँव जैसा बन गया।
छोटे-बड़े, रंक-राजा, अच्छे-बुरे, स्त्री-पुरुष, वृद्ध-युवान इत्यादि पर्यायदृष्टिसे न देखकर श्री लघुराज स्वामी एक आत्मदृष्टिसे सबमें आत्मा, प्रभु देखते, एवं सभीको 'प्रभु' कहकर ही बुलाते।
और उनमें आत्म-ऐश्वर्यरूप प्रभुता अद्भुतरूपसे प्रकाशमान हो रही थी इसलिये सब कोई उन्हें 'प्रभुश्री' कहकर सम्बोधन करने लगे।
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सं.१९७६का चातुर्मास प्रभुश्रीने सनावद श्री सोमचंद कल्याणजीके यहाँ किया। उसके बाद सं.१९७७, १९७८ और १९७९के तीनों चातुर्मास आश्रममें किये। सं.१९८० में यात्राके लिए समेतशिखर गये। वहाँसे वापस लौटकर वह चातुर्मास पूनामें सेठ श्री माणेकजी वर्धमानके यहाँ किया।
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