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________________ [६७] काविठामें पूरे गाँवका आग्रह होनेसे वे सीमरडासे काविठा पधारे। परमकृपालु श्रीमद् राजचंद्र प्रभुके देहोत्सर्गकी तिथिके निमित्त सं.१९७५ चैत्र वदी ५ का महोत्सव काविठामें हुआ था उसका वर्णन श्री रणछोड़भाईने नारसे श्री रत्नराजको चैत्र वदी ७ को लिखा है, "चैत्र वदी ५को बड़ा मण्डप बाँधा गया, जिसके अंदर मंदिरके समान चौमुखी माँडवी बनायी, उसमें परमकृपालुदेवश्रीजीकी स्थापना कर भक्ति की गयी। नार, बोरसद, सुणाव, भादरण आदि स्थानोंसे मुमुक्षु भाई-बहन दो सौ लगभग पधारे थे। और, मुंबईसे श्री दामजीभाई तथा पू.मणिलालभाई तथा अहमदाबादसे पवित्र पू.भाईश्री पूजाभाई एवं पू.कल्याणजीभाई आदि पधारे थे। इसी प्रकार आसपासके गाँवोंके तथा काविठा गाँवके भाई-बहन मिलकर लगभग दो हजार लोग इकट्ठे हुए थे और बहुत ही उत्कृष्ट भक्ति हुई थी, जिसका चित्रण हे प्रभु! मैं क्या कर सकता हूँ?" इसका प्रत्युत्तर श्री रत्नराजने खूब ही प्रेरक और मार्मिक दिया है १"भक्तिभाव भाद्रव नदी, सबहि रही सीराय । सरिता सोई जानिये, जेठ नीर ठहराय ॥" प्रभुश्रीका स्वास्थ्य दिन-प्रतिदिन बिगड़ रहा था। अतः ग्रीष्मऋतुमें गर्मी न लगे और निवृत्ति मिले इस हेतुसे खेतमें एकान्त मकानमें रहनेकी व्यवस्था की गयी। आसपासमें ज्वार आदिकी फसलके कारण ठण्डक रहती, जिससे गर्मीमें नर्मदाके किनारे जानेकी आवश्यकता नहीं थी। पानी अनुकूल आ रहा है ऐसा श्री रणछोड़भाईने श्री रत्नराजको पहले पत्रमें लिखा था। दूसरे पत्रमें लिखते हैं, "दो व्यक्ति उठाकर खड़ा करें तब खड़े हो सकते हैं। फिर जठराग्नि बिलकुल मंद हो जानेसे भोजन पचता नहीं है। ज्वर आता रहता है। शरीरप्रकृति दिनोंदिन शिथिल होती जा रही है।" __ भाद्रपद सुदी ६ के पत्रमें लिखते हैं, “यहाँ पर्युषण पर्वपर चारसौ मुमुक्षुभाई-बहन मुंबई, सुरत, बगसरा, सनावद, मियांगाम, डभोई, मंडाला, नार, काविठा, संदेशर, सीमरडा आदि गाँवोंसे आये। सबने मिलकर आठ दिनतक परमकृपालु स्वामीश्रीजीकी छत्रछायामें भक्ति और आनंद-उल्लासपूर्ण भावसे एवं परमप्रेमसे पर्व मनाया है।...इस बार परमात्मा परमोपकारी स्वामीश्रीजीकी प्रकृति बहुत ही अस्वस्थ थी अतः बिलकुल बोले बिना पधारते थे। परंतु हे प्रभु! उनकी छाया ही मोक्ष है तो फिर उपदेश-वचनामृत न हो तो भी कितना उल्लास आया होगा..." पर्युषणके संबंधमें अन्य पत्रमें लिखा है, "आठ दिन तो श्री श्वेताम्बर पर्युषण पर्व श्री सीमरडा गाँवमें अत्यंत भक्तिभावसे, सुंदर रीतिसे, कभी नहीं मनाया गया वैसा, श्री परमकृपालु सद्गुरु परमात्मा प्रभुश्रीजीके परम उल्लाससे किसी अपूर्व प्रकारसे, जो वाणीमें नहीं आ सके वैसे, मनाया गया है जी। परमात्मा प्रभुश्रीजीने लम्बे समयसे जो गुप्त रीतिसे-जड़भरतकी भाँति संग्रहीत माधवके परम परम परम उल्लासको प्रगट किया, उससे अनेक जीवोंको सत्पुरुषके मार्गकी सन्मुखदृष्टिमें दृढ़त्व आनेसे परम आनंद प्राप्त हुआ है जी।...अनेक जीवोंको भक्तिके समय मूर्छा आ गयी थी और अनेक जीवोंको उसकी खुमारी अभी तक है।" १. भक्तिभाव भादों महीनेकी नदीके समान है जो सब जगह बह रही है। परंतु सच्ची सरिता उसे ही कहेंगे जो जेठ महीनेमें भी पानीका संग्रह रखें अर्थात् ग्रीष्म ऋतुमें भी पानी सूख न जाये । अर्थात् सत्पुरुषकी विद्यमानतामें तो भक्तिभाव होता ही है, उनके वियोग भक्तिभाव टिकना ही सच्चा भक्तिभाव है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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