SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ६६ ] सेवाके लिए तारापुर आते । वहाँ रोज 'श्रीमद् राजचंद्र' वचनामृतका वाचन होता । भाई मणिभाई भी सहकुटुंब मास-डेढ़ मास समागमके लिए तारापुरमें रहे । आणंद स्टेशनपर तार - मास्टर भाई मगनभाई लल्लुभाई थे वे भी प्रतिदिन गाड़ीमें आते । फाल्गुन सुदी पूर्णिमाको आसपासके गाँवोंसे तथा वटामणकी ओरसे तीनसौ भाई एकत्रित हुए थे और बहुत उल्लाससे भक्ति हुई थी । जलवायुके कारणसे अन्य क्षेत्रमें जानेका विचार था, इसी बीच भाई मोतीभाई भगत तथा बांधणीवाले भाई भगवानजीभाईकी आग्रहभरी विनती सीमरडा गाँवमें पधारनेकी होनेसे श्री लघुराज स्वामी सीमरडा पधारे और वहाँ अनाडी उपचार हो जानेसे उनकी शरीरस्थिति भयंकर हो गयी थी ऐसा श्री रणछोड़भाईके श्री रत्नराजको लिखे गये पत्रसे विदित होता है - " चूहे के काटनेका उपचार अंकोल वृक्षकी जड़को बताया गया । उसका तारापुरमें छह दिन प्रयोग किया...यहाँ सीमरडा आकर भी यह औषधि शुरू की... चवन्नीभर नित्य लेते ... यहाँ प्रतिदिन एक तोला शुरू किया। पाँच दिन तो प्रतिदिन दस्त उल्टी हुई, वह सहन हो सके ऐसा दिखायी दिया। छट्ठे दिन, पुराने वृक्षकी जड़ होनेसे अत्यधिक विषैली थी, जिससे दस्त उल्टी हुई किन्तु पेटमें एकदम ठण्डक होनेसे वायु तीव्र हो गयी और सारी गर्मी रक्तमें आ जानेसे आग-आग हो गयी तथा तीव्र वेदनाके कारण ज्वर जो कम था वह तेज हो गया । देह छूट जायेगी ऐसी वेदना होने लगी । हम सब घबरा गये । छोटा गाँव, कोई दवा, वैद्य या कोई सलाहकार चतुर व्यक्ति भी नहीं । इससे बहुत चिंता हुई, परंतु हरिइच्छासे... परमात्मा परमकृपालु प्रभुश्रीने ही कहा कि मुझे घी खिलाओ । हमने डरते-डरते घी खिलाया, क्योंकि ज्वर था । औषधिकी गर्मी कुछ शान्त हुई है, ऐसा लगा तो फिर थोड़ा घी पिलाया, परंतु वह दिन तो भयंकर स्थितिमें बीता। दूसरे दिन गलेमें, पीठमें तथा मूत्रमें बहुत ही तीव्र गर्मी होनेसे अत्यंत वेदना हुई, पर सहज आराम दिखायी दिया... जड़ पिलाना बंद किया । मेरा आना और परमात्मा परमकृपालु प्रभुश्रीका भी उस ओर पधारना स्थगित हो गया है...' "" इसके प्रत्युत्तरमें श्री रत्नराज भाई रणछोड़भाई आदिको संतसेवा संबंधी सूचना निम्न पत्रमें लिखते हैं–“वे तो निःस्पृह पुरुष हैं इसलिये उन्हें देहका भान नहीं है । वे तो मात्र उदयाधीन चेष्टाओंकी क्रीडा देखनेमें ही रमण करते हैं, परंतु ऐसे अवसरपर समीपवर्ती शिष्योंका धर्म है कि उनके शरीरधर्मको सँभालें । इसीलिए तो श्री सत् सनातन मार्गमें गुरु-शिष्यका नियोग अवस्थित है, वह योग्य ही है...। आप जो साक्षात् प्रत्यक्ष संजीवन मूर्तिकी सेवाबुद्धिसे सेवा कर रहे हैं वह अनुमोदनीय, प्रशंसनीय और अनुकरणीय है जी... 'जे सद्गुरु-स्वरूपना रागी, ते कहिये खरा वैरागी; जे सद्गुरु-स्वरूपना भोगी, ते कहिये साचा योगी; जे सद्गुरु-चरण- अनुरागी, ते कहिये महद् बडभागी; जे सद्गुरु चरणथी अळगा, ते थड छोडी डाळे वळग्या. ' १ अर्थ - जो सद्गुरुस्वरूपके रागी हैं वे ही सच्चे वैरागी कहे जाते हैं। जो सद्गुरुस्वरूपके भोगी - आत्मानंदके भोक्ता है वे ही सच्चे योगी हैं। जिन्हें सद्गुरुके चरणसे- आज्ञासे अनुराग है वे ही महद् भाग्यशाली गिने जाते हैं और जो सद्गुरुके चरणसे दूर हैं-विमुख हैं, वे मूलको छोड़कर शाखाको पकड़ने जैसा करते हैं, अर्थात् उनका सर्व प्रयत्न व्यर्थ है । मूलं नास्ति कुतो शाखा ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy