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________________ [६५] १४ सं.१९७४ कार्तिक सुदी १५ के बाद श्री लघुराज स्वामी श्री बगसरासे चारणिया गाँव पधारे। वहाँ एक माह रहकर राजकोट पधारे, श्रीमद्की देहोत्सर्ग भूमि है वहाँ भक्तिभाव किया। फिर श्री रत्नराजस्वामीको उमरदशीमें मिलकर चरोतरकी ओर पधारे। चरोतरके भाइयोंको लम्बे समय तक विरह रहा, अतः नार, काविठा आदिके मुमुक्षु चरोतरमें पधारनेकी विनती चातुर्मासके पूर्वसे ही सतत आग्रहपूर्वक कर रहे थे, इसलिए नार पधारनेके विचारसे अगास तक आये, वहाँ तो काविठाके मुमुक्षु अगास सामने आये थे वे उन्हें काविठा ले गये। भाई कल्याणजीभाई आदि मुमुक्षु काविठा तक आये थे। पाँच-सात दिन काविठा रुककर आपश्री नार पधारे। अन्य गाँवोंसे मुमुक्षुगण दर्शन समागमके लिए नार आते थे। रात बीतनेपर जैसे प्रभात होता है वैसे ही श्री लघुराज स्वामीके संबंधमें भी हुआ। चार वर्ष पहले चरोतर छोड़कर दूर निकल जानेके संयोग खड़े हुए थे, उसके स्थानपर अब चरोतरमें मानो भक्तिका युग आनेवाला हो वैसे अनेक नये मुमुक्षु एकत्रित होने लगे। भाई रणछोड़भाईको भी, उनके व्यापारमें भागीदारोंकी सहमतिसे भक्तिमें समय बितानेका अच्छा अवसर मिला। इससे वे अधिकांश समय लघुराज स्वामीके साथ ही रहते। नये मुमुक्षुमण्डलको भक्तिमार्गमें जोड़नेके लिए उन्होंने अगाध प्रयत्न प्रारंभ किया। सत्पुरुषके योगबलके विस्तारमें निमित्तभूत बुद्धिबल, वचनबल, कायबल, धनबल आदिकी आवश्यकता होती है। वैसी वैसी अनुकूलता अब धीरे-धीरे स्वाभाविकरूपसे प्राप्त होने लगी थी। एक भाईके अत्यंत आग्रहसे श्री लघुराज स्वामी नारसे सीमरडा पधारे । वहाँ थोड़े दिन रहकर काविठा दस-पंद्रह दिन रुके। वहाँ रात-दिन भक्ति होती थी। फिर वर्षाऋतु आरंभ होनेपर वापस नार पधारे और वहाँ श्रीमद् राजचंद्र मंदिरमें चातुर्मास किया। नारके बहुतसे मुमुक्षु उत्साही थे, तथा मुंबईसे भाई मणिभाई भी अनेक बार आते थे और रहते थे। भाई रणछोड़भाई, भाई भाईलालभाई वल्लभभाई, भाई मणिभाई आदिका ऐसा विचार हुआ कि प्रभुश्री (लघुराज स्वामी)की वृद्धावस्था तथा व्याधिग्रस्त स्थिति होनेसे एक पर्णकुटी जैसे स्थायी मकानकी आवश्यकता है। इसके लिए साधु-समाधि खाता खोलकर उसमें जिसे रकम देनी हो वह देवे ऐसा निर्णय किया गया। उसी चातुर्मासमें नारमें पाँच हजार रुपयेकी रकम इकट्ठी हो गयी तथा किसी अनुकूल स्थानपर मकान बनवानेका भी भाई रणछोड़भाईके साथ निश्चित हो गया। धर्मका उद्योत हो ऐसी अनुकूलता बढ़नेके साथ ही प्रभुश्रीजीका शरीर व्याधियोंसे घिरने लगा। फिर भी वे उसकी चिंता किये बिना यथाशक्ति मुमुक्षुओंमें धर्मप्रेमकी वृद्धि कैसे हो उसके लिए विशेष श्रम करते थे। नारमें चार बार चूहेने काटा, जिसका विष रक्तमें फैल गया और वे विषाक्त कीटाणु अन्त तक-सं.१९९२में अहमदाबादके मुमुक्षुभाई डॉ. रतिलाल और वडोदराके मुमुक्षु डॉ. प्राणलालने रक्तकी अनेक बार जाँच की तब भी-रक्तमें पाये गये। अनेक उपचार करनेपर भी ज्वरने शरीरमें घर ही कर लिया। ___ चातुर्मास पूर्ण होनेपर पूर्णिमाकी भक्ति नारमें करके वहाँसे प्रभुश्रीजी सं.१९७५में तारापुर पधारे। वहाँ रूईके कारखानेमें एक खण्डहर जैसी कोठरी मिल गयी वहाँ ठहरे। नारवाले भाई शनाभाई सेवामें रहते । वहाँका पानी अच्छा नहीं होनेसे नारके मुमुक्षुभाई सदैव पानी लेकर समागम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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