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________________ [६४] संबंधमें वे लिखते हैं, "नित्य शामको प्रभुश्रीजी उपदेश देते । प्रातः निवृत्त होकर जंगलमें जाते। दो-तीन घण्टे बाद वापस गाँवमें आते । चातुर्मासमें समय-समय पर चरोतर आदिसे कोई-कोई मुमुक्षु दर्शन समागमके लिए आते रहते।" श्री रत्नराज द्वारा लिखित पत्रसे श्री लघुराज स्वामीकी वहाँकी शरीरस्थितिके संबंधमें जानकारी मिलती है, “महाप्रभुजीके शरीरमें दूनी-तिगुनी वेदना हो रही जानकर खेद हुआ है...खंभातसे पत्र है, उसमें उनकी दर्शनकी इच्छा है।" सं.१९७३ के मार्गशीर्ष वदि ६ के पत्रमें श्री रत्नराजजी, स्वामीजीको लिखते हैं, "जिह्वा अभी बन्द है, प्रभु! वह आपश्रीके शुभाशीर्वादसे मूल स्थितिमें आनेकी आशा है जी...आप महाप्रभुजीकी करतलरूप छत्रछाया इस देहधारीको...शीतल विश्रान्तिस्थान है जी।' परमकृपालु प्रभुश्री (लघुराज स्वामी) के प्रणके विषयमें रत्नराज लिखते हैं १"संसारीनुं सगपण छोडी भक्ति मारी भावे रे; तेनो दास थईने दोडु, जरी शरम नव आवे रे." २“अमे सदा तमारा छईओ श्री स्वामीजी; जेम तमे राखो तेम रहीओ." सत्संग, सद्गुरु छो तमे श्री स्वामीजी. फाल्गुन सुदी १२के पत्रमें श्री लघुराज स्वामी लिखते हैं "अन्य पुरुषकी दृष्टिमें जग व्यवहार लखाय । - वृंदावन जब जग नहीं कौन व्यवहार बताय ॥" "दूसरे, सिद्धपुरसे आपकी वाचा खुल जानेके बधाई-समाचार मिले हैं जिससे परम उल्लास हुआ है जी।...जैसे परमकृपालुका मार्ग रोशन हो वैसे करिये जी।...मैं अलगाव नहीं समझंगा। भले ही पू. पोपटलालभाई आपश्रीसे मिलें, मैं प्रसन्न हूँ। प्रभु, जयविजयजी तथा मोहनलालजी सभी एकता-परामर्शसे रहें इसमें मुझे आनंद है।...मुझे अब निवृत्ति, जैसे भी हो मुमुक्षु भाई-बहनोंकी ओरसे परिचय कम हो ऐसा विचार है जी...अब तो पत्रव्यवहार भी जैसे बने वैसे कम करना है।" इसके बाद मात्र एक वर्ष पूरा होनेपर एक पत्रमें क्षमापनापूर्वक लिखते हैं, “गठियाके कारण उठतेबैठते लड़खड़ा जाता हूँ जी...अविषमभावसे देखते रहेंगे। अन्य किसी प्रकारकी असुविधा नहीं है...यहाँसे कोई पत्र लिखना नहीं बनता। चित्तवृत्ति संकुचित होनेसे वैसा व्यवहार हो गया है जी। पत्र बहुत...अनेक स्थानोंसे आते हैं, उन्हें लिखना नहीं होता। उन सबकी प्रवृत्ति कैसी चलती है इसका भी पता नहीं है, तथा मुमुक्षुभाई जो विचार करते हों उसकी ओर लक्ष्य नहीं है। हे प्रभु, शान्ति है। 'तेरा तेरे पास है, वहाँ दूजेका क्या काम?" * * * १. भावार्थ-संसारीकी सगाई छोड़ दूं और जो भगवानके भक्त हैं उनकी सेवामें रत रहूँ, उसमें मुझे किंचित् भी शर्म नहीं आती। २. भावार्थ-हे स्वामीजी! हम तो सदा आपके दास हैं। जैसे आप रखेंगे वैसे रहेंगे। ३. भावार्थ-हे स्वामीजी! आप ही सत्संग और सद्गुरु है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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