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यह प्रसंग आँखमें आँसू भरकर बताया था। वहाँसे नडियाद होकर अहमदाबाद आये, धर्मशालामें ठहरे। श्री रत्नराज स्वामी अहमदाबादसे विहार कर पालनपुरकी ओर चले गये थे। अहमदाबादमें स्वयं पूजाभाई, गांधीजी आदिसे मिलकर काठियावाडकी ओर पधारे । सुणावके भाई काभई मुनदास उनके साथ थे। कंकावावकी ओर जानेवाले थे। जूनागढ़में स्थिरता होनेके बाद नहिवत पत्रव्यवहार विशेष परिचितोंके प्रति हुआ है। श्री रणछोड़भाईको भी थोड़े समय तक नहीं जानने दिया। सं.१९७२का चातुर्मास भी वहीं जूनागढ़में हुआ। ___वहाँके वातावरणके बारेमें लिखते हैं, "...वनक्षेत्रमें राजेश्री स्थान, निवृत्तिपूर्ण योगियोंके ध्यान-रमण करनेका स्थान, सहज ही वृत्तिमें आनंद उत्पन्न हो, चित्तकी शान्तिका निमित्त कारण, एकान्त निवासका धाम, पानी भी अच्छा, यह सब यहाँ अनुकूल है। उपाधि भी कम है।"
“यह क्षेत्र त्यागी, वैरागी, योगी, ध्यानीको सहज अनुकूल निमित्तवाला है।"
"हे प्रभु, सहज ही हल्के फूल हो गये हैं, सद्गुरुके प्रतापसे कोई चूँ चाँ नहीं करता। उल्टे सामने भावपूर्वक आते हैं जी।...ऐसे निवृत्तिवाले स्थानमें कुछ विक्षेप या विकल्प हों तो टल जाते हैं।...एकान्त आनन्द-ज्ञानके प्रतापसे, गुरुशरणसे शान्ति रहती है।" । ___ “पहले गाँवसें महामारी रोग दिखायी दिया था, पर अब ठीक है। यहाँ गाँवके बाहर 'प्रकाशपुरी में तो कोई उपद्रव नहीं है, सब ठीक है। अतः उन्हें (श्री कल्याणजीभाईको, बगसरा) पत्रसे ना (वहाँ जानेकी) लिख दी है। अभी तो यहीं रहनेका विचार है। फिर हरिइच्छा, आगे जो हो सो ठीक।"
एक अन्य पत्रमें लिखते हैं, “मात्र अन्तर्वृत्तियाँ जिस प्रकार सहज, सद्गुरुशरणसे शांत हो वैसा पुरुषार्थ होता है जी। आनन्द आता है। व्यवहारसे जैसे योग-साधन हो, वह सहज-सहज करते हैं, उसके द्रष्टा रहनेसे शान्ति है जी। एक आत्माके अतिरिक्त सब मिथ्या है वहाँ विकल्प क्या?"
संवत्सरी क्षमापना संबंधी, सं.१९७२ में स्वामीजी श्री रत्नराजको एक पत्रमें लिखते हैं, "आपश्रीकी देह-शरीरप्रकृति अस्वस्थ और मूर्छा आनेके साथ वाचाबन्दके समाचार मिलनेसे अत्यंत खेद हुआ है जी। यह व्याधि प्रत्यक्ष देखी हुई थी...मनमें ऐसा होता है कि किसी जीवात्माको वह व्याधि-पीड़ा-दुःख न हो...यह पत्र पढ़कर सुखशांति-आराम होनेका प्रत्युत्तर देनेकी कृपा करेंगे जी।"
चातुर्मास पूर्ण होनेपर सं.१९७३ कार्तिक वदिमें श्री लघुराज स्वामी, राजकोट निवासी भाई रतिलाल मोतीचंदके साथ जूनागढसे बगसरा पधारे। उन्होंने अपने रूईके कारखानेमें उन्हें एक मास तक भक्तिभावसे रखा। भाई मणिभाई कल्याणजी, श्री लघुराज स्वामीका समागम कभी-कभार नडियाद, काणीसा और जूनागढ़में दर्शनके निमित्तसे कर चुके थे। महामारीके उपद्रवके समय भी उनका विचार स्वामीजीको बगसरा ले जानेका था। अतः अब रूईके कारखानेसे स्वामीजी भाई मणिभाईके यहाँ पधारे। फिर पूरे वर्ष वहीं रहना हुआ। भाई मणिभाईको व्यापारके कारण मुंबई रहना होता था, परंतु उनके पिताजी, माताजी आदि श्री लघुराज स्वामीकी सेवामें ही रहते थे। वे स्वयं भी तीन-चार बार दर्शनके लिए बगसरा आये थे। उस समयकी स्वामीजीकी दिनचर्याके
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