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[६२] के मार्गशीर्ष मासके प्रारंभमें) उन्होंने नडियादमें भाडेका बंगला ले रखा था वहाँसे श्री लघुराज स्वामी गाँवमें पधारे और जिन मुमुक्षुओंका सहारा माना जाता था उनसे भी स्वतंत्र रहने लगे। उसके बाद उस पक्षने मुनि-निन्दाका काम हाथमें लिया। जहाँ भक्ति आदिके निमित्तसे मुमुक्षु इकट्ठे होते वहाँ, मुनिधर्म कैसा होना चाहिए, आजकल मुनि कैसी चर्यासे प्रवृत्ति कर रहे हैं, अब मुनि बिगड़ गये हैं, परमकृपालुदेवके मार्गकी बदनामी हो, निन्दा हो ऐसी प्रवृत्ति कर रहे हैं-इत्यादि अनेक प्रकारसे अनेक स्थानोंपर मुनियोंके प्रति लोगोंको आदरभाव कम हो, कुछ तिरस्कारवृत्ति उत्पन्न हो ऐसी चर्चाओंमें अपना महत्त्व माना जाने लगा। बोधि-समाधिके प्रेरक मुनियोंके सहायक बननेके बदले वे ही बोधि-समाधिके निधि समान मुनियोंके नियंता बननेमें अपना तन-मन-धन लगाने लगे। कृपालुदेवने मुनिश्री लघुराजजीको बताया था कि 'बनिये तुम्हारे गुरु बनने आयेंगे' उस चेतावनीरूप भविष्यवाणीको धर्मसुधारके काममें लगे मुमुक्षुओंने चरितार्थ की! चरोतरके प्रदेशमें जहाँ जैन या श्रीमद् राजचंद्रको माननेवाले मुमुक्षु रहते थे वैसे क्षेत्रोंमें उन मुनियोंके विहारकी सम्भावना नहीं रही थी। नडियादमें भी श्री लघुराजजीके पास कौन आता है, क्या बात होती है, कहाँ विहार करनेवाले हैं आदि बातें जाननेके लिये एक भाईको अपना बनाकर जानकारी प्राप्त करना और यथाशक्य हैरान कर मुनियोंको थका देना जिससे वे अपने कहेमें रहकर प्रवृत्ति करें ऐसा प्रयत्न वह पक्ष कर रहा था। लोकव्यवहारकी भाँति किसी-किसी दिन वे अग्रणी भी महाराजके पास खबर लेनेके लिए आते और अच्छा लगानेका दिखावा करते। __ सं. १९७२ के कार्तिक कृष्ण पक्षमें श्री रत्नराज, नडियाद पहुँचनेका सूचित करके दवाई आदिकी थैली भी किसी मुमुक्षुके साथ भिजवा देते हैं। श्री रत्नराजके नडियाद पधारनेके बाद, काणीसा गाँवके बाहर जंगलमें कामनाथ महादेवका एकान्त स्थान जो दोनोंने पहले देखा हुआ था वहाँ स्थिर होकर अकेले रहनेका विचार दोनोंने निश्चित किया। वहाँके पुजारी बाबरभाईके दो पत्र श्री रत्नराजके पास वडोदरा निमंत्रणके रूपमें पहुँच चुके थे। श्री रत्नराज मुख्यरूपसे व्यवहारकुशल हैं ऐसा समझकर, वे जैसा करें वैसा करने देना और स्वयंको अनुकूल हो या न हो पर कठिनाई उठाकर भी अन्यकी प्रकृतिको निभा लेना श्री लघुराज स्वामीका स्वभाव था। अतः वे उनके साथ काणीसा कामनाथ महादेवके क्षेत्रमें पधारे। श्री रत्नराजका अभिप्राय पहलेसे ही ऐसा था कि एक अलग स्वतंत्र मकान हो तो ठीक, अतः वहाँके लोगोंकी सहमति और सहयोगसे एक कोठड़ी भी अलग श्री लघुराज स्वामी आदिके लिए बनवा दी। नारवाले रणछोड़भाई यद्यपि साधारण स्थितिके व्यक्ति थे फिर भी काणीसामें महात्माओंको किसी प्रकारकी असुविधा न हो ऐसा ध्यान रखकर खर्च भी उठाते थे, परंतु श्री लघुराज स्वामी व्यवहारकुशल और बहुत दयालु थे। वे जानते थे कि एक ही मुमुक्षुपर सारा बोझ पड़ रहा है, तथा श्री रत्नराजकी स्वतंत्र प्रकृति बदल नहीं सकती ऐसा लगनेसे स्वयं किसी दूर क्षेत्रमें अकेले चले जानेका मनमें निश्चय कर रखा था। चैत्र वदि ५ की भक्तिके पश्चात् श्री रत्नराज पूजाभाई, गांधीजी आदिसे मिलने अहमदाबादकी ओर गये और श्री लघुराज स्वामी नार पधारे । वहाँ श्री लक्ष्मीचंदजी मुनिसे मिले और श्री रणछोड़भाईको भी सूचित किया कि 'अब हम किसी जंगलमें चले जायेंगे और कायोत्सर्गपूर्वक देहत्याग कर देंगे, पर किसी पर बोझरूप नहीं बनना चाहते । हमारी आज्ञाके बिना कोई हमारे पास न आये।' श्री रणछोड़भाईने
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