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आश्विन सुदी ५ के पत्रमें लिखते हैं, “आपका कृपापत्र... पढ़कर, विचारकर आनन्दमें अभिवृद्धि हुई है । पू. मनसुखभाई रवजीभाई तथा पू. पूजाभाई मोटाने यहाँ लगभग दो रात रहकर समागमका लाभ लिया है... । वे दोनों भाई प्रशस्त भाव दिखाते थे । वर्तमानमें आपश्रीपर पूर्ण श्रद्धाभक्ति दरसाते थे। हमसे नम्रतापूर्वक प्रार्थना की कि आपको जैसा उचित लगे वैसे चातुर्मास पूरा होने पर स्वामीजीकी व्यवस्था करें। जो खर्च होगा वह हम दोनों भाई मिलकर उठायेंगे। तब हमने...' आत्मज्ञान, समदर्शिता विचरे उदयप्रयोग' इस गाथाकी व्याख्या कर उन्हें समझाया था कि केवल सेवाकी ही बुद्धि हो तो कहना और किसी प्रकारकी 'आप ऐसा करो तो हम ऐसा करेंगे' ऐसी व्यवसायी बनियाबुद्धि हो तो वह पहले बता देना... इत्यादि वार्तालाप हुआ है । "
स्वामीजी इसके प्रत्युत्तरमें लिखते हैं, “धैर्य से जैसा होना होगा वैसा हो जायेगा। देखते रहेंगे, द्रष्टा बनकर ।” फिर आश्विन वदी ५ को लिखते हैं, "इन सब मुमुक्षुओंकी झंझटमें नहीं पड़ना है, हरिइच्छासे द्रष्टा बनकर देखते रहेंगे ।"
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इस लम्बे पत्रव्यवहारके संक्षिप्त अवतरण देनेका प्रयोजन यही है कि स्वामी श्री लघुराजजी दो वर्ष श्री नडियाद क्षेत्रमें रहे उस समय जो उत्पात हुए उसका अनुमान श्री रत्नराजके उद्गार प्रदर्शित करते हैं, जिससे उन प्रसंगोंकी उत्कट विकटताका कुछ ख्याल आ सके । अधिकांश पत्र अमुक अपने खास व्यक्तियोंके साथ भेजे गये थे ऐसा मूल पत्रों परसे ज्ञात होता है और पत्रवाहकसे पत्रमें नहीं लिखी गयीं बातें सुननेका अनेक पत्रोंमें निर्देश है, अर्थात् किसीके भी दोष प्रसिद्ध हों ऐसा उनका अन्तःकरण चाहता नहीं था । कुछ उद्गार जो पत्रोंमें निकल गये हैं वे उन प्रसंगोंकी प्रबलता ही सूचित करते हैं । अतः ये प्रसंग, पत्र लानेवालोंके नाम आते हैं उनसे सुने हैं, फिर भी महापुरुषके साधुचरितका अवलोकन करनेपर उनका विस्तार करनेको चित्त प्रेरित नहीं होता। फिर भी यदि उसका कुछ भी दिग्दर्शन न हो तो जो चरित्र लिखनेका कार्य हाथमें लिया है उसके प्रति अन्याय ही होगा, अतः कठिन परीक्षा समयके व्यवहारका, सहनशीलताका, सद्गुरुकी अनन्य दृढ़ भक्तिका, एक आश्रयको टिकाये रखनेका सिंह स्वभाव जो स्वामी लघुराजजीमें था वह इन पत्रोंके अवतरणोंमें भी दृष्टिगोचर नहीं होता ।
किसीको कलंकरूप लगे ऐसी बातका विस्तार न कर संक्षेपमें बताने योग्य सामान्य बात इतनी है कि त्यागबल, धनबल और वाक्बल, इन तीनोंका सुयोग हो तबतक धर्मप्रवृत्ति भी व्यवस्थित दिखायी देती है । तदनुसार श्रीमद् राजचंद्रके अवसानसे लेकर श्री लघुराज स्वामीके नडियाद निवास तक बारह-तेरह वर्ष मुमुक्षुमण्डलकी बाह्य धर्मप्रवृत्ति सुसंगठित दशामें दिखायी दी । फिर जिस भाईके उदार आश्रयसे धनकी प्रवृत्ति होती थी उस प्रवाहकी दिशा बदल जानेसे अथवा इतने वर्षोंमें खर्च की गयी रकमका हिसाब उन्होंने अग्रणी मुमुक्षुके समक्ष रखा और उस रकमको किसी धनसम्पन्न भाईने चुका दिया, उस प्रसंगसे मुमुक्षुवर्गमें दो भेद पड़ गये। ये भेद मुनिमण्डलको धर्मशासनमें हानिकारक लगनेसे श्री लघुराज स्वामीने उद्गार प्रगट किये कि सयाना तो वो है जो दोनों वर्गोंको एक कर सके । ये वचन अग्रणी मुमुक्षुको खुचनेसे उन्होंने श्री लघुराज स्वामीको स्पष्ट बता दिया था कि आप चाहे जिस एक पक्षमें रहें, नहीं तो निराधार बन जायेंगे - कहनेका तात्पर्य यह कि आप हमारे पक्षमें रहें, अन्यथा हमें आपके विरुद्ध भी होना पड़ेगा। उसी दिन (सं. १९७१
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