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________________ ४६८ उपदेशसंग्रह - ६ जेठ वदी ३, सं. १९७९ हमें तो सत्य कहना है । अपनी मतिसे शास्त्र पढ़कर, मेरी बुद्धिमें तो ऐसा आता है और वैसा आता है मानकर बुरा कर रहे हैं । ज्ञानीपुरुषकी दृष्टिसे रहना चाहिये। हमें तो एक ही दृष्टि रखनी है, रखवानी है, उससे किंचित् भी अलग नहीं पड़ना है । सब छोड़कर एक मंत्रका स्मरण करें और शास्त्र भी यही दृष्टि बढ़ानेके लिये पढ़ें। ज्ञानीपुरुषके सिवाय अन्यके मुखसे धर्मकी बात न सुनें । जीव प्रेमको चारों ओर बिखेर देता है उसके बदले सारा प्रेम एक पर ही कर देना चाहिये । पूना, ता. २-९-२४ अन्य किसीके दोष न देखें और मात्र अपने ही दोष देखनेकी दृष्टि रखें। किसी भी व्यक्तिके गुप्त दोष, छिद्र प्रकट न करें। इसमें बड़ा खतरा है । किसी आचार्यका एक शिष्य एक स्त्रीके संपर्क में आया। स्वयंको विकार होनेसे उस स्त्रीने शिष्यको अपने साथ संबंध करनेकी माँग की। परंतु शिष्य अडिग रहा, तब स्त्रीको अपनी बेइज्जतीका डर लगा, जिससे उसने शिष्यको छुरीसे मार दिया और गुप्त रीतिसे जमीनमें गाड़ दिया । आचार्यको किसी प्रकार शिष्यका पता नहीं लगा । बादमें स्त्रीको अपने कार्यके लिये पश्चात्ताप हुआ, अतः आचार्यके पास प्रायश्चित्त लेने गयी । आचार्यने उस स्त्रीको दूसरे दिन आनेको कहा । I शिष्यका पता लगनेका अवसर आया है ऐसा कहते हुए आचार्यने दूसरे दिन स्त्रीके आनेके समय संघवीको आनेके लिये कहा। दूसरे दिन संघवी आया तब आचार्यने उसे पेटी ( संदूक ) में बंदकर पेटी अपने पाटके पास रख दी । फिर स्त्री आयी । प्रायश्चित्त लेनेके लिये स्त्रीने शिष्यको मारनेका अपराध स्वीकार किया । आचार्यने तुरंत पेटी (संदूक) पर हाथ मारकर संघवीको सुननेका संकेत किया । स्त्रीको संदेह हो गया कि संघवी - उसका श्वसुर वहाँ है, इसलिये वह लज्जित होकर चली गयी। उस स्त्रीने आत्महत्या कर ली । अपयशके डरसे उसके सास, ससुर और पतिने भी आत्महत्या कर ली । यों सबकी आत्महत्याका पाप आचार्यके सिर पर आ पड़ा। फिर आचार्यने भी आत्महत्या कर ली । 1 इस प्रकार अन्यके गुप्त दोष प्रकट करनेमें बड़ा खतरा है । पूना, ता. २-९-२४ परमकृपालुदेव द्वारा प्ररूपित सनातन जैन वीतरागमार्गकी पुष्टिके लिये ही यह आश्रम है । आश्रमके निकट रहनेवाले समझदार मुमुक्षुओंको साथ रखकर ट्रस्टियोंको यह देखना चाहिये कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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