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________________ उपदेशसंग्रह-५ ४६७ योग्य है। आजकल लोगोंकी मति अल्प है, इसलिये थोड़ेमें समझमें आये वैसा इसमें है। इसमें मर्मकी बात भी है। पढ़ा हो, पर्याय पड़े हो तो याद आती है। रोगके समय वृत्ति मंद न हो ऐसे आधार भी उसमें रखे हैं। आधार है तो गिर न पड़े। 'समयसार'का भी अनुवाद होना चाहिये। हमने जितनी पुस्तकें पढ़ी है, उनमेंसे ये दो ठीक लगी है। हम तो सबको आत्मा देखते हैं। सात व्यसनका त्याग करना चाहिये। क्षमापना, बीस दोहे, आत्मसिद्धि, छह पदका नित्य पाठ करें, चिंतन करें। प्रार्थना बोलते समय ऐसा न माने कि भगवान दूर है, पर यहीं पास ही है ऐसा मनमें सोचकर बोलें । विश्वास रखना है। विश्वास होगा तो काम बन जायेगा। यह सच्ची हुँडी है, ऐसी-वैसी नहीं है। बाह्य वेष न देखें। व्यवहारमें भी ऐसा होता है कि किसीके साथ आपकी जान-पहचान हो तो उसके साथ लेन-देन आरंभ हो जाता है। फिर अधिक पहचान हो जाने पर उसके साथ व्यवहार करनेमें कोई डर नहीं लगता। इसी प्रकार इस जीवने अभी तक आत्माका व्यवहार प्रारंभ नहीं किया है। व्यवहार करने लगे तो विश्वास जम जाता है और पहचान होती है। पहचान होनेके पश्चात् श्रद्धा होती है, जिससे किसी प्रकारकी चिंता नहीं रहती। अभी तो यह जीव मिथ्यात्वमें परिणत हो रहा है, मिथ्यात्वके कारण सुख दुःखकी मान्यता हो रही है, पर वास्तवमें सुखदुःख मिथ्या हैं। एक बार श्रद्धा हो जाय तो सब बोझ उतर जाता है। अत्यंत धूप पड़ रही हो, सिर पर बोझ लदा हो, थककर चूर हो रहा हो, ऐसे व्यक्तिका बोझ उतर जाय और ठंडी छायामें आनंदसे बैठनेका स्थान मिल जाय तो कितनी शान्ति मिलती है ? वैसे ही आनंदमय आत्माकी श्रद्धा होनेसे सुख-दुःखका बोझ उतरकर शांति प्राप्त होती है। __द्रव्य दो हैं-जड़ और चेतन। किन्तु मिथ्यात्वके कारण यह जीव जड़को जड़रूपसे नहीं पहचानता और चेतनको चेतनरूपसे नहीं जानता। अंधा और अनजान बराबर हैं, ऐसा हो गया है। जो जो वस्तु देखता है, उसे जरूपसे नहीं मानता। उसकी पर्यायबुद्धि है, इसलिये पर्याय देखता है और उसके निमित्तसे राग-द्वेष हो जाते हैं। १. 'समयसार' का गुजराती अनुवाद भी आश्रमकी ओरसे प्रकाशित हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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