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________________ ४६६ उपदेशामृत १. मुमुक्षु-पहलेसे तैयारी रखनी चाहिये । थोड़ा-थोड़ा सहनशीलताका. अभ्यास करना चाहिये । २. मुमुक्षु-योद्धाने शस्त्र प्रयोग सीखा हो तो युद्धके समय काम आता है। प्रभुश्री-यह बात बहुत गहन है। यह जीव क्षण क्षण मर रहा है। अतः क्षण-क्षण जागृति रखनी चाहिये। समय मात्रका भी प्रमाद नहीं करना चाहिये। नित्य मृत्युको याद रखना चाहिये, जिससे ममत्वभाव नहीं रहेगा। जीव घिर जायेगा तब तो कुछ नहीं हो सकेगा। जैसा भाव, शुभ किया तो तदनुसार और शुद्ध किया तो तदनुसार फल मिलेगा। तात्पर्य यह कि सबसे लघु बन जायें, विनय करें। विनय संक्षिप्त मार्ग है। विनयमें सब समाहित है। झुकनेवाला परमेश्वरको भी अच्छा लगता है । सहनशीलता और क्षमा बड़ेसे बड़ा उपाय है। चाहे जो हो जाये तो भी क्षमाका भाव रखें । समकितीका लक्षण क्या? उलटेको सीधा करे। 'मेरा तेरा' छोड़े तो समकित आता है। सन्मुखदृष्टि होनी चाहिये । समकितीके पास रागद्वेष आते ही नहीं। उसकी समझ बदल गयी है। उसे पहचान (आत्माकी) हो गयी है। बीचमें वज्रकी दीवार खड़ी हो गयी है। समकिती बारंबार अपने दोष देखता है। वह सोचता है कि वह जो कुछ करता है वह बाह्य है, वहाँ आत्मा नहीं है। और अन्य तो जो कुछ करते हैं, उसमें अहंभाव रखते हैं। कितना अंतर है? भाव, उपयोग न हो तो मुर्दे हैं। भाव है या नहीं? कहाँ दूर लेने जाना है? रोग आये, पैसा चला जाये, क्रोध आये तब उपाय क्या? समभाव। सदाचारमें प्रथम समभाव । उसके पहले विनय, श्रद्धा, प्रतीति आनी चाहिये । रुचि होनी चाहिये । रुचि हो तो झटपट खाना खा लेता है। आत्मा है, पहचान होनी चाहिये । उसे पकड़ना आना चाहिये। काल कहता है कि मैं सब जगह जाता हूँ, इन्द्रलोकमें भी जाता हूँ, किन्तु समभावके आगे मेरा कुछ नहीं चलता। प्रतिबंध कर बैठता है, पुद्गलमें आसक्त हो जाता है। दृष्टिमें विष है। ज्ञान हो तो विषयकषाय हो सकते हैं? कषायसे तो वह भिन्न है। कषाय तो कर्म हैं, वे तो पड़े हैं। उससे आत्माको क्या? ज्ञानको क्या? बहुत पढ़ा हो, पूर्वका ज्ञान भी हो, पर समकित न भी हो। ध्यानमें रखो कि अब कुछ अपूर्व करना है। वह यह कि शरीर है इसीलिये यह सब हुआ है, देह ही शत्रु है, अतः सबसे प्रेमको खींचकर आत्मासे जोड़ देना है। देखो, समभाव, सामायिक ग्रहण करो। केवलज्ञान तक उसमें समाहित है। क्षमा और आज्ञा भी चाहिये। +'रत्नकरंड श्रावकाचार मेंसे समकितके आठ अंग, बारह भावना, संलेखना आदि छपाने ___ + 'समाधिसोपान में, प्रभुश्रीकी विद्यमानतामें ही ये प्रकाशित हो चुके हैं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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