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________________ उपदेशसंग्रह-५ ४६३ ‘बात तो मान्यताकी है।' 'सद्धा परम दुल्लहा।' यह मनुष्यभव न हो तो कौवे-कुत्तेके भवमें कुछ हो सकता है ? यह सब तो महा पुण्यके योगसे प्राप्त होता है। मगर यह तो उलझानेवाली भारी गुत्थी है। “जहाँ कलपना जलपना, तहाँ मानुं दुःख छांई; मिटे कलपना जलपना, तब वस्तू तिन पाई." ता. १९-३-३६ साता है, पूर्वबद्ध कर्मोंको भोगना है। अब बुढ़ापा आ गया है। कुछ अच्छा नहीं लगता । एक आत्मा है। हमारे तो एक ही है-समभाव, मैत्रीभाव । यह सब छोड़कर चले जाना है, कल सब चले जायेंगे। आप सब बहुत अच्छे हैं, उत्तम हैं। आपके प्रति एक आत्मभाव है। चमत्कार है! क्या? एक कर्तव्य है, कि जीवने जिस वस्तुको जाना नहीं है, वह एक ही है। क्या नहीं जाना? इस पर विचार कर्तव्य है। यथातथ्य पहचान नहीं हुई है। 'मेरे-तेरे'के मतभेदको छोड़ना पड़ेगा। यदि स्वास्थ्य ठीक हो तो बात इतने विस्तारसे करनी है कि इस जीवका सबके साथ मिलाप और 'सर्वात्ममें समदृष्टि' हो जाय । 'यह तो मेरा और यह तो तेरा', 'अच्छा और बुरा' हो रहा है, पर गुरु या शिष्य सबमें यथार्थ वस्तु तो आत्मभावना है। ‘आतम भावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे.' यह एक मंत्र हाथ लग जाय तो जीवनडोरके समान है। तब क्या हाथ नहीं लगेगा? एक आत्मभाव करना और परभावको छोड़ना। परभावसे अनंत बंध और भव करने पड़ते हैं। भाव और परिणाम मुख्य बात है। जैसे भाव करेंगे वैसा फल प्राप्त होगा। भेदीके मिलने पर सिद्धि होती है। प्रसन्नचंद्र राजर्षिको अंतर्मुहूर्तमें केवलज्ञान हो गया। एक पहचान नहीं है, उसकी आवश्यकता है। एक बड़ी भूल है, सत्संग, बोध और श्रद्धा नहीं है। लींबड़ी और अमुक संघाडा मेरा है यों मानता है। उसका वैसा ही फल होता है। यह सब संबंध है। पहली वस्तु समकित है। उसके बिना 'रुला चतुर्गति माहि' । ये तो ज्ञानीपुरुषके वचन हैं। सब मेहमान हैं। आत्माको जानें । 'पावे नहि गुरुगम बिना'। 'गुरुगम' कहा, यह तो चमत्कार है! जाने दे, जाने दे, जाने दे, पता नहीं है। मेहमान है। पवनसे भटकी कोयल है, लुटालूट, पकड़ करनी है। "उपयोग ही धर्म है, परिणाम ही बंध है।" यह सारे धर्मका सार है। सत्संग चाहिये या नहीं ? गच्छ, मत, पुस्तक, शिष्य ये सब मिल जायेंगे, पर यह नहीं मिलेगा। एक गुरुगम, उसके बिना कुछ नहीं। विचार तो सही। पता नहीं है। गुरुगम क्या है, उसे जाननेकी आवश्यकता है। जाने बिना छुटकारा नहीं है । 'सद्धा परम दुल्लहा'। सत्संग और बोध चाहिये या नहीं? गच्छ मत कुछ नहीं है। ज्ञानीने 'गुरुगम' बताया, क्या उसका यथार्थ निश्चय करनेकी आवश्यकता नहीं ? कमी योग्यताकी है, सब सुन रहे हैं। योग्यता प्राप्त किये बिना काम नहीं होगा। आत्माके समागममें रहियेगा। आप सब जीव उत्तम हैं। ___ आत्माको जाननेकी आवश्यकता है। किसी भी प्रकारसे आत्माको जानना है। भावना-बारह भावना कर्तव्य है। अब तो दिन निकट हैं। बहुत जीवोंसे मिलकर देखा हैं। कुछ साथ आयेगा? रुपये-पैसे साथ नहीं आयेंगे। आत्मा असंग-अप्रतिबद्ध है। इसकी रिद्धि क्या? अनंतचतुष्टय-अनंत दर्शन-ज्ञान-वीर्य-सुख, इसकी रिद्धि है। चाहे जिससे पूछे, सबसे बड़ी वस्तु तो आत्मज्ञान है-उससे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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