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________________ ४६२ उपदेशामृत ता. १२-३-३६ "आजनो लहावो लीजिये रे, काल कोणे दीठी छे?" ज्ञानीकी बात ज्ञानी जानें । बात समझनेकी है। बात दशाकी है। मुमुक्षु-किसका लाभ लेना है? प्रभुश्री-अति शीघ्रतासे। मुमुक्षु-वह क्या? प्रभुश्री-अपने आत्माका कुछ साधन कर लेना चाहिये, बस यही। जहाँ बैठे वहाँ आत्मा, आत्मा और आत्मा-एक आत्मा ही। बात थी स्वयं एक आत्माको समझनेकी। यही-आत्मा। “सर्वात्ममां समदृष्टि द्यो” “आजनो ला'वो लीजिये रे काल कोणे दीठी छे ?" चिंतामणि है, हाँ, अन्य सब माया है। 'धिंगधणी माथे किया।' एक स्वामी किया। अन्य कुछ नहीं। माया, संबंध, रुपया पैसा, शरीर आदि मिलना सब कर्माधीन है। जीव वस्तु आत्मा है, उसका नाश नहीं है। स्वामीकी आज्ञा स्वीकार की अतः सब हो गया। मूल वस्तु तो ज्ञान, दर्शन, चारित्र वही आत्मा है। वही स्वामी है। उसे मान लेवें। यह मिल गया और विश्वास तथा प्रतीति हो गयी तो सब मिल गया। वह इतना मनुष्यभव है वह चिंतामणि है। धर्मका सच्चा लाभ लेनेका है। कुछ नहीं, मात्र एक आत्माकी पहचान, अन्य नहीं समझें। एक आत्माकी पहचान हो गयी तो बस । अंधा और अनजान बराबर । भेदी ही स्पष्टरूपसे बतायेगा कि दाँये हाथ जाना, ऐसा भेदी हाथ आ जाय तो काम बन गया। आजका अवसर कोटि कर्म क्षय कर सकता है। स्वाभाविक मार्ग ऐसा है! आत्मा है। उसकी एकमात्र पहचान करें, निश्चय करें । कर्तव्य है, मान्य है, श्रद्धा है, प्रतीति है। खाना-पीना सभी संबंध है-और कुछ नहीं, उसकी बात नहीं है। ये सब अब पर है। यही है बाप । इसे जाननेकी आवश्यकता है। केवल यही कर्तव्य है । पर विश्वास कहाँ है? प्रतीति कहाँ है? उस पहचानका ठिकाना कहाँ है? पहचान कहाँ है? अनादिकालकी भ्रांति है। हमने तो एक मानने योग्यको माना है, जड़को इष्ट नहीं मानते। । ता. १९-३-३६ इस जीवकी कुछ भूल है, गुत्थी उलझी है उसे सुलझाना है। भूल है, पर किसी पढ़े हुए को पूछे तो तुरत निकाल देता है। जीवको ऐसा लगता है कि 'वाह ! बात बहुत अच्छी कही।' वहाँ क्या आया? आत्महित । 'मैं कुछ नहीं जानता, इस बातको तो ज्ञानी जानते हैं', ऐसा जहाँ होता है वहाँ द्वार खुलते हैं और मान्यता होती है। पर वहीं उलझन पड़ी है। धन्य भाग्य कि इस कालमें, इस मार्गमें, इस देशमें यह योग मिल गया है! वह किसी विरल पुरुषके लिये है। पूर्वकृत तो चाहिये । वह न हो तो कैसे सुनेगा? इस समय सभी अनुकूलता प्राप्त हो गयी है। जीव अन्य सब स्थानों पर दौड़ेगा, पर अभी कहाँ पता है कि उसे कुछ सुनना भी चाहिये? जहाँ स्वयंका पंजीकरण कराना हो वहाँ मान्यता हो गयी तो काम बन गया। कृपालुने मुझे कहा था कि 'तुम्हें कहीं जाना नहीं पड़ेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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