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________________ [५१] चौथे नियमके अनुसार यदि कोई चंदन-पुष्पादिसे अपनी पूजा करे तो भी करने देना चाहिए। इसलिये श्री लल्लजी स्वामी वैसा करने देते । पुजवानेकी इच्छा न होनेपर भी किसीको अंतरायरूप न होनेकी इच्छासे विषके घुटके समान नीचे उतार देते। ऐसे अनुकूल उपसर्ग अभ्यंतर तपःशक्तिकी कसौटी हैं। इस प्रकारके उपसर्गरूप प्रसंग विराधकवृद्धिके दोषदृष्टि जीवोंको विराधना और उपसर्गके लिए बहाना बन जाते, इससे तो मुनियोंकी स्थिति विरोधी जनसमूहमें विशेष विकट हो जाती और उग्र तपस्याका निमित्त बन जाती। ___ सं.१९६६ का चातुर्मास श्री लल्लजी आदिने पालीताणामें किया। किसी साधुके साथ वादविवादमें नहीं पड़ना ऐसा मुनियोंने निश्चय किया था। जिससे पीछी आदि वेश-विचित्रता देखकर अनेक साधु और श्रावक टीका करते, परंतु वे इस विषयमें कोई चर्चा नहीं करते, सुना-अनसुना कर उस पर ध्यान न देते। पालीताणामें भाई शिवजी नामक कच्छी श्रावकने जैन छात्रावासकी स्थापना की थी। वहाँ 'वीर अट्ठाई महोत्सव' किया गया था। वहाँ ये मुनि जाते और भाई शिवजीके साथ परिचय हो गया था परंतु गाढ़ परिचय होकर उन्हें जो माहात्म्य भासित होना चाहिए वैसा प्रसंग उस चातुर्मासमें नहीं आया। मात्र सरलस्वभावी, भक्तिवन्त, श्रीमद्के शिष्य हैं ऐसा भाव रहा। श्री रत्नराजके वाक्चातुर्यसे उनपर अच्छा प्रभाव पड़ा और उनका माहात्म्य लगा। पिछले वर्षों में भाई शिवजीभाई सिद्धपुर आश्रममें दो-तीन मास रहे, पर इससे उनके मनको संतोष नहीं हुआ। वे श्री लल्लुजी स्वामीके दर्शनके लिए वर्षमें एक-दो बार कभी कभी आ जाते, परंतु सं.१९९२में छब्बीस वर्षक लम्बे अन्तरालके बाद स्वामीजीके साथ एक माह रहनेकी अनुकूलता श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगासमें मिली थी। उस समय प्रभुश्री-लघुराजस्वामी (श्री लल्लजी मुनि ऐसे नामोंसे पहचाने जाते, कुछ भोले पाटीदार लोग उन्हें 'बापा' भी कहते) के अन्तःकरणकी विशालता, प्रभुप्रेम और प्रभाव श्री शिवजीकी समझमें आया और धामणकी ओरके भक्तोंका समागम होनेपर उन्हें पौराणिक श्रीकृष्णकथाकी याद आ गयी। जैसे श्रीकृष्णने उद्धवजीको गोकुल भेजा था और वे गोपियोंकी भक्तिके रंगमें रंगकर लौटे थे, वैसा ही श्री शिवजीके साथ भी हुआ। श्री शिवजी द्वारा पालीताणामें की गयी सेवाको श्री लल्लुजी स्वामी अनेक बार याद करते। उस ऋणको उतारनेके लिए ही मानो अंतिम वर्षमें उनको आकर्षित करके उनपर कृपा की हो ऐसा अचानक यह एक मासका प्रसंग बन गया था। एक बार श्री शिवजी भक्तिके आवेगमें आ गये, उस समय ‘अगासना संत' और 'मने मळ्या गुरुवर ज्ञानी रे' आदि गीत स्वयं लिखे थे। ये स्वरचित गीत आश्रमके मुमुक्षुओंसे वे बारबार गवाते थे। श्री लल्लजी आदि विहार करते-करते खंभातकी ओर पधारे और श्री रत्नराज पालनपुर, डीसा आदिकी ओर विहार करने लगे। श्री रत्नराजको फिर श्री लल्लजी आदिका दो-तीन वर्ष वियोग रहा, किन्तु जो भक्तिका रंग लगा था वह मिट जाये वैसा नहीं था। 'रत्नसंचय काव्य', 'भक्तिरत्न चिंतामणि' आदि काव्यग्रंथोंमें उनकी श्रीमद् राजचंद्रके प्रति गुरुभक्ति स्पष्ट झलकती है। श्री लल्लुजी स्वामीको श्री लघुराजजीके नामसे श्री रत्नराजने गाया है और उनके प्रति उनका भक्तिभाव उपकारीके रूपमें भी उनके काव्योंमें स्थान-स्थानपर प्रदर्शित हुआ है। इस वियोग-कालमें दोनों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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