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________________ [ ५०] ग्रंथ मँगाया। उसमेंसे 'उपदेशछाया के पृष्ठ बताये होंगे ऐसा समझकर बारंबार पढ़कर उसका अभ्यास किया। वह उन्हें बहुत पसंद आया। और इस कालमें मोक्ष है और सद्गुरुके योगसे वह अवश्य प्राप्त किया जा सकता है, ऐसी उन्हें दृढ़ श्रद्धा हो गयी। किन्तु दो-तीन वर्ष उन्हें सत्संगका वियोग रहा क्योंकि श्री लल्लजी स्वामी वडाली, पालीताणा आदि क्षेत्रमें विचरे थे। __ श्री लल्लजी स्वामीने वसो और बोरसदमें सं.१९६३-६४के दो चातुर्मास किये तब तक वे चरोतर क्षेत्रमें विचरते थे। अतः उत्तर गुजरातमें विहार करते श्री रत्नराज स्वामीको उनका समागम करनेकी इच्छा होनेपर भी मिलाप नहीं हो सका था। फिर स्वयं विहार करते-करते वडाली, ईडरकी ओर पधारे उस समय श्री रत्नराजका समागम हुआ होगा, ऐसा श्री रत्नराजके एक पत्रसे ज्ञात होता है। उसमें वे लिखते हैं, "इस लेखकका लक्ष्यबिंदु तो, जब पहली बार आप प्रभुश्रीके सत्समागममें आया और जिन विचारोंका आदानप्रदान अहमदाबाद एवं सिद्धपुरके मार्गमें हुआ, वही है।" श्री लल्लजी स्वामीके समागममें बारबार विशेष आनेवाले भाई पोपटलाल महोकमचंदके समागमसे श्री रत्नराज स्वामीको श्रीमद् राजचंद्रके प्रति विशेष प्रेम-भक्तिकी वृद्धि हुई थी। उसी दौरान श्रीमद् राजचंद्र संबंधी हस्तलिखित साहित्य जो दामजीभाईके पास था उसे श्री रत्नराज स्वामीने भी पढ़ा, जिससे उन्हें विशेष भक्तिभाव जागृत हुआ तथा श्री लल्लुजी स्वामीके समागम, सेवामें रहना चाहिए ऐसा लगनेसे सं.१९६६का चातुर्मास पालीताणामें सब मुनियोंके साथ करनेका निश्चय किया। पालीताणा जानेके पहले श्री रत्नराज स्वामी आदि तीर्थयात्राके लिए महेतराणा गये थे। वहाँ उन्होंने स्थानकवासी वेश बदलकर ओघाके स्थान पर मोरपीछी रखी और मुहपत्तीको मुँहपर बाँधना बन्द किया। मोरपीछी कम उपाधि और विशेष यत्नाका कारण होनेसे सर्व मुनियोंने उसे ग्रहण कर लिया। श्री रत्नराज स्वामीकी वक्तृत्वशक्ति आकर्षक होनेसे सबके मनका समाधान भी हो जाता। लोगोंकी टीका-टिप्पणीका प्रत्युत्तर देनेवाले उस चातुर्मासमें साथ ही होनेसे उन्हें कुछ भी विकल्पका कारण नहीं रहा। महेतराणामें श्री रत्नराज स्वामीने पाँच अभिग्रह (नियम) धारण किये थे। उनकी महत्ताके विषयमें मुनिमण्डलमें बारंबार विचार होता था जिससे ये विचार भी सर्वमान्य जैसे हो गये थे। वे पाँचों अभिग्रह निम्न प्रकारसे थे (१) गुण न हो वैसा नाम धारण नहीं करना। (२) गुण प्राप्त करनेके पुरुषार्थमें मन्दता नहीं करना। (३) आत्मनिर्णयके लिए अन्य कथित वेशधारियोंके साथ वादविवाद नहीं करना। (४) अपने सम्प्रदायके अनुसार कोई सेवाभक्ति करे तो उसमें अन्तरायरूप नहीं होना। (५) किसीपर उपकार किया हो तो उसके बदलेकी भावना नहीं रखना। जिसमें सेवाबुद्धि मंद पड़ गई हो उसकी स्पृहा नहीं करना । सेवाभावसे सेवा करना और सेवाभावके अतिरिक्त कुछ भी किया गया नहीं चाहना, स्वीकार नहीं करना। १. वि.सं.१९६५का चातुर्मास श्री लल्लुजी स्वामीने वडालीमें किया था। मुनिश्री मोहनलालजी साथमें थे। -पूज्यश्री ब्रह्मचारीजी द्वारा की गई नोंधके आधार पर (नोंधपोथी नं. १) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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