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चढ़ जाओ।" तब काँपते हुए वे भी चढ़ गये। निकट पहुँचते ही उन्हें पकड़कर ऊपर खींच लिया। श्री मोहनलालजीको तो ऊपर पहुँचे तब शान्ति मिली। वहाँ बैठकर दो घड़ी भक्ति की। सब जगह घूमकर देख लिया। एक पत्थरके पास ध्वजा बँधी हुई थी। उसे ही गुरुका स्थान मानकर भील लोग पूजते हैं। वहाँ एक गुफा है। वर्षमें कभी-कभी वहाँ मेला लगता है।
यात्रा कर विहार करते हुए श्री लल्लजी वसोकी ओर पधारे और सं. १९६३में वसोमें चातुर्मास किया।
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श्री लल्लजी स्वामी वसोका चातुर्मास पूरा कर विहार करते हुए खंभातके पास फेणाव गाँव पहुँचे। वहाँ खंभातसे दर्शनके लिए आये कुछ मुमुक्षु और उस गाँवके भी मुमुक्षु मुनियोंके साथ गाँवके बाहर निवृत्ति क्षेत्रमें विचारार्थ एकत्रित हुए थे।
फेणावमें व्यापारके लिए भाई रणछोड़भाई नामक एक युवक आये थे। वे भी वेदान्तके ग्रंथ पढ़कर उसमें कुशल हो गये थे। उन्होंने जब सुना कि श्री लल्लजी गाँवके बाहर पधारे हैं तब वे भी उनके दर्शन-समागमके लिए वहाँ आये। भाई रणछोड़भाईके पिता श्री लक्ष्मीचंदजी संघाडासे अलग हो कर श्री लल्लजी स्वामीके साथ रहे थे जिससे उस साधुवर्गको पहचानते हुए भी उनका विशेष परिचय नहीं हुआ था। और वेदान्त शास्त्रोंका परिचय होनेसे उनका जैनोंके प्रति प्रेमभाव भी कम था। अतः जब सभी सिद्धांतकी चर्चा कर रहे थे तब रणछोड़भाईने प्रश्न किया कि, "आप तो वीतराग भगवानको मानते हैं, वे वीतराग होनेसे कुछ फल नहीं दे सकते, तब उनकी भक्ति करनेसे आपको क्या मिलनेवाला है?"
श्री लल्लजी उस समय कुछ नहीं बोले। यह कोई अनजान व्यक्ति है, ऐसा समझकर किसीने उस ओर ध्यान भी नहीं दिया। सबके उठकर चले जानेके बाद श्री लल्लुजीने रणछोड़भाईको प्रेमपूर्वक एक ओर बुलाकर कहा, "सबके बीचमें ऐसा प्रश्न किया जाता है?" तबसे श्री रणछोड़भाईके मनमें बस गया कि ये कोई हमारे यथार्थ हितेच्छु हैं। यों अव्यक्त प्रेमका बीजारोपण हुआ। __फेणावसे विहार करते हुए श्री लल्लजी बोरसद पधारे। श्री देवकरणजीका सं.१९५८का चातुर्मास बोरसद करवानेकी वहाँके मुमुक्षुओंकी तीव्र इच्छा थी, पर वह नहीं हो पाया था। अतः सबके आग्रहसे इस वर्ष सं.१९६४का चातुर्मास बोरसद होना निश्चित हुआ। यह क्षेत्र खंभात संघाडेका नहीं है फिर भी बरवाला संघाडा वाले क्वचित् चातुर्मास करने आ जाय यह सोचकर श्री लल्लजी दिगम्बर धर्मशालामें ठहरे। श्री लक्ष्मीचंदजी भी साथमें थे। गाँवके बहार जेठाभाई परमानंद सेठका बंगला भक्ति-भजन, वाचन-विचारके लिए रखा गया था। अनेक भाई-बहिनोंको भक्तिका रंग लगा था, वह स्थायीरूपसे टिका रहे इसके लिए बोरसदमें 'श्रीमद् राजचंद्र पाठशाला' स्थापित करनेका विचार भी उस चातुर्मासमें हुआ।
भाई रणछोड़भाई नारसे बोरसद मुनिश्रीके दर्शन-समागमके लिए आये हुए थे। उन्होंने श्री लल्लजी महाराजसे प्रार्थना की कि मोक्षमार्ग बताइये । उस समय वे 'श्रीमद् राजचंद्र' ग्रंथ पढ़ रहे थे उसमेंसे बीचके ‘आत्मसिद्धि शास्त्र के पृष्ठ पकड़कर कहा, "इसीमें मोक्षमार्ग है।" रणछोड़भाईने वह
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