SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [४८] दर्शन करने जाते, वहाँ भक्ति करते, इसलिए कोई-कोई उनके पास आते और निष्पक्षपाती बातचीतसे प्रसन्न होते। श्री माधवजी रेवाजी सेठको श्री लल्लुजी स्वामीका विशेष परिचय हुआ था और उनका पूरा कुटुम्ब भक्तिरागी बन गया था। भाई अखेचंद आदि पहले विरोधी पक्षमें थे, पर धीरे-धीरे उन्हें सत्संगका रंग लगा और मृत्युपर्यंत वह बढ़ता ही गया। चातुर्मास पूरा करनेके बाद भी ईडरके आसपासकी पवित्र भूमिमें विहार कर शेष काल पूरा होनेपर सं.१९६२का चातुर्मास खेरालुमें किया। सं.१९५७में श्री रत्नराज नामक एक साधु मारवाडसे विहार कर गुजरातकी ओर आ रहे थे। उन्होंने सुन रखा था कि श्रीमद् राजचंद्र नामक कोई आत्मज्ञानी पुरुष हैं, अतः उनसे समागम कर उनकी कृपासे आत्मज्ञान प्राप्त करनेकी उनकी अभिलाषा थी, परंतु मार्गमें उन्हें समाचार मिले कि उन आत्मज्ञानी महात्माका देहावसान हो गया है। इसलिए वे वापस मारवाडकी ओर चले गये। वहाँ अनेक दिगम्बर विद्वानोंका उन्हें समागम हुआ और दिगम्बर ग्रंथोंका भी उन्होंने स्वाध्याय किया। उनका क्षयोपशम और व्याख्यानशक्ति भी मनोहर थी। जिससे अनेक बुद्धिमान और आत्मार्थी जीव उनके समागममें आते। श्रीमद् राजचंद्रके कोई अनुयायी हों तो उनसे मिलनेकी भी उनकी इच्छा थी। सं.१९६२का चातुर्मास उन्होंने पालनपुरमें किया। उसी समय एक मुमुक्षु खेरालुमें श्री लल्लजी स्वामीके समागमके बाद श्री रत्नराज स्वामीके दर्शनार्थ पालनपुर आये। उन्होंने श्री रत्नराज स्वामीको श्रीमद् राजचंद्र और श्री लल्लुजी स्वामीके बारेमें प्रशंसापूर्वक विस्तारसे बात की कि हमें धर्ममार्गपर ले जानेवाले श्री लल्लजी स्वामी चौथे कालके महामुनि समान अलौकिक, दर्शनीय, माननीय, पूजनीय मंगलमूर्ति हैं। इसपरसे श्री रत्नराज स्वामीको भी श्रीमद् हरिभद्रसूरिकी भाँति चमत्कार लगा और चातुर्मास पूर्ण होनेके बाद उनका समागम करनेकी उन्हें भावना जगी। खेरालुमें बहुत समयसे श्वेताम्बर और स्थानकवासियोंके बीच खटपट चल रही थी पर श्री लल्लजीने वहाँ चातुर्मास किया तब उनके निष्पक्षपाती बोधसे दोनों पक्षके समझदार व्यक्तियोंका आपसमें मिलनेका मौका मिलता। वीरमगाम, धंधुका, वटामण, अहमदाबाद आदि गाँवोंके मुमुक्षु वहाँ मुनिसमागमके लिए आते और प्रभावना करते तो स्थानकवासी और श्वेताम्बर दोनोंको करते। दोनों ही वर्गके लोग प्रभावना लेते और स्वामीवात्सल्य भी दोनों साथ मिलकर करते। इस प्रकार कषायभाव दूर हो और एकता बढ़े ऐसी प्रवृत्ति श्री लल्लुजी स्वामीके उपदेशसे होती थी। खेरालुका चातुर्मास पूरा कर श्री लल्लुजी और श्री मोहनलालजी तारंगा तीर्थकी ओर विहार करने लगे। मार्गमें धाणधारमें 'धुंधलीमल्लनो भोखरो' नामक एक पहाड़ आता है, उसे 'गुरुनो भोंखरो' (गुरुकी चोटी) भी कहते हैं । पहाड़ पर एक पत्थरकी बड़ी शिला चोटीकी भाँति ऊँची बढ़ी हुई है। उस पर अन्य किसी प्रकारसे चढ़ना सम्भव नहीं होनेसे बाँसपर बाँस बाँधकर एक लम्बी सीढ़ी बना दी थी। सीढ़ीके कई सोपान टूटे हुए थे, बाँस भी फटे हुए थे, और ऊँचाई देखकर घबराहट हो, ऐसा होनेपर भी श्री लल्लजी तो धैर्यपूर्वक सँभलकर ऊपर चढ़ गये। ऊपर समतल जमीन और ठण्डी हवा होनेसे दो घड़ी भक्ति हो सकेगी ऐसा सोचकर श्री मोहनलालजीको ऊपर बुलाया, पर उनकी हिम्मत नहीं चलती थी। श्री लल्लजीने ऊपरसे हिम्मत दिलाते हुए कहा, "ऊपर आनेके बाद बहुत आनन्द आयेगा। बाँस टूटनेवाले नहीं है। नीचे देखे बिना हिम्मत करके ऊपर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy