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________________ [ ५२] मुनियोंके बीच पत्रव्यवहार हुआ हो ऐसा लगता है, पर वह सुरक्षित नहीं रहा। केवल श्री रत्नराज स्वामीके काव्य साक्षी देते हैं कि उनका प्रेम वर्धमान हुआ था। *** २ श्री पालीताणासे श्री लल्लुजी आदि मुनिवर चरोतरकी ओर विहार कर खंभात आये और श्री रत्नराज स्वामीने ववाणिया होकर उमरदशीमें चातुर्मास किया। श्री लल्लजी आदिने पन्द्रह वर्षों के बाद पाँचवीं बार खंभातमें सं.१९६७का चातुर्मास किया। श्री लल्लजी स्वामीने श्री रत्नराज स्वामीपर समागम और बोधकी इच्छा प्रदर्शित करते हुए एक पत्र लिखा था जिसका उत्तर हिन्दी भाषामें उन्होंने दिया है। उससे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि चाहे जहाँसे, शिष्यसे भी हितशिक्षा ग्रहण करने जितनी लघुता उन्होंने प्राप्त कर ली थी__“आपश्री रस्सी खींचेंगे तो यह लिखनेवाला तो सत्पुरुषोंका बिना दामका दास है, सो लोहचुंबककी भांति स्वतः खिंचा चला आयेगा...श्री सत्योपदेशवार्ताके विषयमें तो आपश्रीसे हमारी अत्यंत नम्र भावसे यही सूचना है कि हम सरीखे दयापात्रोंसे आप उपदेशादिकी इच्छा न रखा करें..."–सं.१९६७, आश्विन प्रतिपदा। इसी मासके दूसरे पत्रमें श्री रत्नराज स्वामी द्वारा माँगी गयी सलाहके उत्तरमें उन्होंने संक्षेपमें बताया था, जिसके उत्तरमें श्री रत्नराज स्वामी लिखते हैं "आपश्री लिखवाते हैं कि 'आपको सलाह दे सकूँ ऐसी हमारी प्रज्ञा नहीं है' इस विषयमें इतना ही बहुत है कि शुद्धात्मा-शुद्ध ब्रह्मको प्रज्ञाविशेषका अवकाश ही कहाँ है?...थोड़ी बहुत प्रज्ञासे आत्मदशाका कुछ अनुमान किया जा सके ऐसा कुछ नियम नहीं है। अर्थात्......अल्पज्ञ हों या विशेषज्ञ हों, जिन जीवात्माओंने वृत्ति उपशम या क्षीण कर क्षय कर दी हो, वे जीवात्मा ही आत्मदशा प्राप्त करनेके अधिकारी हैं, उन्हें ही आत्मदशा आविर्भूत होने योग्य है और वे ही अत्युत्कट आत्मदशावान साक्षात् भगवान हैं।..." चातुर्मास पूरा होने आया उस समय नारवाले रणछोड़भाईके मनमें ऐसा हुआ कि श्री लल्लुजी स्वामी खंभातमें हैं, तो उनके पाससे मोक्षप्राप्तिके सिवाय अब अन्य कोई कर्तव्य नहीं है। ऐसा सोचकर वे नारसे खंभात आये। 'श्रीमद् राजचंद्र' ग्रंथमेंसे 'उपदेशछाया'को बारबार पढ़नेसे उनके मनमें ऐसा दृढ़ विश्वास हो गया था कि सत्पुरुष ही मोक्षदाता हैं यही पूरे ग्रंथका सार है। उनके मनमें यह भी जम गया था कि वे उस ग्रंथको बराबर समझते हैं; परंतु जब खंभातमें बड़े बड़े मुमुक्षुओंको श्री लल्लुजी आदिके समक्ष श्री सुबोध पुस्तकालयमें उस ग्रंथके वचनामृतोंकी चर्चा सूक्ष्म भेदसे करते देखा तब उनका पहलेका अभिमान गल गया और मैं तो अभी कुछ भी नहीं समझता ऐसा उन्हें भासित होने लगा। चातुर्मास पूरा होनेपर श्री लल्लजी आदि खंभातके पास वडवा क्षेत्रमें पधारे। भाई रणछोड़भाई भी उनके साथ ही वहाँ रहे । वडवामें दिनके समय खंभातसे सभी मुमुक्षु आते और सुस्वरसे पूजा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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