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उपदेशसंग्रह - ५
ता. २८-९-३५
अकेला हो वहाँ भी आत्मा है । आत्मा न हो तो अन्य क्या है ? पर जीवको पता नहीं है । इसीलिये ज्ञानियोंने कहा है कि पहचान करो, शेष तो
"सद्गुरुना उपदेश वण, समजाय न जिनरूप; समज्या वण उपकार शो ? समज्ये जिन स्वरूप. "
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यह कथन एकदम स्पष्ट कर दिया है ।
नींबूका पानी सबमें मिल जाता है ऐसे ही जैसी बात निकली हो उसमें मिलकर जीव वैसा ही हो जाता है । सत्संगी बातमें भी तद्रूप हो जाता है। चाहे समझमें न आये, फिर भी पर्याय पड़ते हैं । कौन काम करता है ? श्रद्धा । इसीलिये कहा है कि आत्माका कल्याण आत्मा करता है । जीवको पता नहीं है, अन्यथा यह सब क्या है ? कर्म है, कचरा है ।
एक मनुष्यको वेष पहनाकर बिठा दिया हो, साधु जैसा वेष हो, तो क्या उसे ज्ञानी कहेंगे ? ऐसा ही ०००००००००० के संबंधमें सुन रहे हैं, पर बावरों जैसी बात लगती है । हमारे पास काँटा है । सब पर समदृष्टि है । किसीको छोटा बड़ा कहना नहीं है, ऐसा मनमें होता भी नहीं है; किन्तु जहाँ सत् न हो, वहाँ सत् कैसे कहा जा सकता है ?
सब स्थानों पर जानेके मार्ग होते हैं, वैसे ही आत्मामें जानेका मार्ग समभाव है । उसके बिना नहीं जा सकते, यह समझना है। हमें तो किसीको छोड़ा बड़ा नहीं कहना है । कर्म नहीं देखने हैं । 'पर्यायदृष्टि न दीजीओ, एक ज कनक अभंग रे ।'
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"यह जीव जहाँ जहाँ जन्मा है, भवके प्रकार धारण किये हैं, वहाँ वहाँ उस उस प्रकारके अभिमानसे प्रवृत्ति की है । जिस अभिमानको निवृत्त किये बिना उस उस देहका और देहके संबंध में आनेवाले पदार्थोंका इस जीवने त्याग किया है, अर्थात् अभी तक उसने ज्ञानविचारसे उस भावको गया है और वे वे पूर्वसंज्ञाएँ अभी तक यों की यों इस जीवके अभिमानमें विद्यमान है, इसे ही संपूर्ण लोककी अधिकरणक्रियाका हेतु कहा है" - इतनी ही गुत्थीको सुलझाना है ।
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ता. २९-९-३५
ज्ञानीकी बात अपूर्व है ! जीव कैसा है ? सरल परिणामी है या नहीं, समकिती है या नहीं, यह ज्ञानी देखकर बता सकते हैं ।
समझमें आना चाहिये। समझमें आया हो तो पता लगता है और काम बनता है ।
शरीर स्वामी बन बैठा है । उसकी सार संभाल होती है । वास्तवमें तो वह शत्रु है, यह समझना चाहिये । लुटालूट करनेका समय आ गया है । इसका अर्थ यह है कि भाव करें, आत्माके भाव करें । 'शरीर मेरा नहीं है' ऐसा निश्चय होना चाहिये । उसे विषरूप समझे बिना अन्य कोई उपाय नहीं है। सभी ज्ञानियोंने ऐसा ही किया है । यह तो चमत्कार है, चमत्कार! सबसे हटाकर आत्मामें भाव करवाया है ।
जो 'मेरा' नहीं है, उसे 'मेरा' बनानेका प्रयत्न न करें। वह 'मेरा' होनेवाला नहीं है। जो
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