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________________ ४५० उपदेशामृत ता. १९-९-३५ बीस दोहे चिंतामणि हैं। जैसे व्यवहारमें प्रसादी बाँटी जाती है, वैसे ही यह प्रसादी है। उसमें स्पष्टरूपसे बताया है। कोई कोई ऐसी औषधि भी होती है कि जिसे रोगी खाये तो भी गुण करती है और स्वस्थ व्यक्ति खाये तो भी गुण करती है। वैसी ही यह उद्धारकी औषधि हैं। दवाईके लिये दूध पानीकी आवश्यकता होती है, वैसे ही इसके लिये क्या आवश्यक है? - [चर्चा होनेके पश्चात्] सबकी बात सच्ची है। पर किसीने गाली दी हो तो वह बार बार याद आती है; वैसे ही आप सब जानते हैं फिर भी जोर देकर कहते हैं कि 'भाव' चाहिये । इसे विशेष ध्यानमें रखें । सामायिक तो सभी करते हैं, पर पूणिया श्रावककी सामायिककी ही प्रशंसा हुई । इसी प्रकार भाव भावमें अंतर है। 'साधुको सदैव समता होती है' इसीको चारित्र-समभाव कहते हैं। साधु सबमें आत्मा देखते हैं, . सबको सिद्धके समान देखते हैं। इतना समझमें आ गया तो काम बन गया! 'भक्तामर' आदि स्तोत्र हैं, पर बीस दोहे सबका सार है। देनेवाला कौन है? x ता. २५-९-३५ परमकृपालुदेवने हमसे कहा था, आत्मा देखो। हमने मान लिया और काम हो गया। दृष्टिमें विष है जिससे अन्य दिखायी देता है। 'वह सत् है,' 'वह परमानंदरूप ही है, ऐसा निश्चय हो जाय तो शेष क्या रहे? यह तो सब साता वेदनी है, सुख नहीं है। सुख तो आत्माका है, वही सच्चा है। तुम सबको भाव, परिणाम करवाने हैं। चुटकी भरकर जगाना है। अभी मनुष्यभव है, यहाँ समकित हो सकता है। फिर कहाँसे लायेंगे? पशु, ढोरके भवमें क्या करोगे? जैसे लोग धन छिपाकर रखते हैं, वैसे ही समभावरूपी धनको इकट्ठा कर रखो। उसमेंसे सब मिल जायेगा। समकित है, तिलक है, प्रमाद न करो, इसे प्राप्त कर लो। जागे तभीसे सबेरा, समझे तभीसे सबेरा । अतः भूलमें न जाने दो। पदार्थका निर्णय होनेमें जितनी कचास उतनी कमी। मान्य कर लो। निश्चय कर लो। प्रमाद बुरा करता है। शूरवीर तलवार लेकर शत्रुको मारनेकी दृष्टि रखते हैं, ऐसा ही करना है। मेहमान हो, पक्षियोंका मेला है। अकेले जाओगे। मै कौन हूँ? इसका कभी विचार ही नहीं किया। यह सब रिद्धि सिद्धि उसीकी है और उसे ही भुला दिया है। अब करना क्या है? कौन सुनता है? एक आत्मभावनामें रहो। शेष सब माथापच्ची है। कुछ देखने जैसा नहीं है। परमकृपालुदेवने कहा था 'भूल जाओ'। जो समझ गये वे समा गये। चारों ओर आग है, वहाँ अब क्या देखना है? स्त्री, पुरुषके वेष भूल जाओ। अंधेरेमें दीपक जलाओ। समभाव रखो। आस्रवमें संवर करो। द्वारका जल गयी, सब नष्ट हो गया, तब बलदेव पूछते हैं कि “कहाँ जायेंगे? पाँडवोंके पास? उनका भी तो हमने बिगाड़ किया है!" कहनेका तात्पर्य यह कि समभावको समझना है। सब ओर आग लग रही है। सब भावोंकी अपेक्षा समभावको बुलाओ। शांति प्राप्त करो। ★ ★ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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