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________________ उपदेशसंग्रह-५ ४४९ श्रद्धा दुर्लभ है। प्रमाद, आलस्यके वश जीव कुछ कर नहीं सकता। जो काम दिनमें करना है उसे अंधेरेमें करे तो कुछ होनेवाला नहीं। मनुष्यभवमें सब समझमें आता है। जीवको जाग्रत होना चाहिये । जीवको बदलना तो पड़ेगा ही। 'आतमभावना भावतां जीव लहे केवळज्ञान रे.' प्रमाद और आलस्यने बुरा किया है। ता. १२-९-३५ प्रमादसे और वैराग्यके बिना रुका हुआ है। करना बहुत सरल है, और बहुत कठिन भी है। मानना, देखना-इतना ही करना है। जड़ और चेतन, दोनोंको जानना है। इतनी पहचान होनी चाहिये, फिर चिंता नहीं। ___ आप सब बराबर बोल गये, इसमें ना नहीं कहा जा सकता। पर सब टेढ़ा । करना क्या है? समकित । लोग मथ-मथकर मर गये तो भी हाथ नहीं लगा। समकित हुआ कि सब हो गया। दीपकके बिना अंधेरा कैसे जाये? दीपकके आते ही साँप, बिच्छु सब दिखायी देता है । ढंक दिया है। दीपक कहाँ नहीं है? प्रमाद, आलस्य और संकल्प-विकल्पमें समय बिगाड़ा। 'आत्मसिद्धि' चिंतामणि है। अहा! ज्ञानी कैसा कह गये हैं! 'जगतको, जगतकी लीलाको बैठे बैठे मुफ्तमें देख रहे हैं।' भूल मिटानी पड़ेगी। दरवाजा, दरवाजा कहनेसे दरवाजा पास नहीं आयेगा, चलना पड़ेगा। हठी बैल जैसा बनकर बैठ गया है। मार्ग कैसे कटेगा? मार-कूटकर उठाना पड़ेगा। कैसे घूसे मारे है! यह सब जो दिखायी देता है वह मिथ्या है, कल्पना है। आत्माको पहचानो। ता. १८-९-३५ इस जीवने सब मिश्रण कर दिया है। शरीर अलग है आत्मा अलग है। आत्मा राजा है, पर मानो वह है ही नहीं ऐसा कर डाला है। उसको संभालना है, पर कोई नहीं संभालता। सब कहते हैं, मेरे सिरमें दर्द है, मुझे रोग हो गया है, यह बात बिलकुल सत्य लगती है; पर ध्यानसे देखें तो बिलकुल झूठी है। देह और आत्माका कोई संबंध नहीं है, पर जीव मान रहा है, मुझे हुआ यों कहता है। वह जानता है कि मरनेके बाद मेरा कुछ रहने वाला नहीं है, फिर भी मेरेपनकी मान्यता नहीं छूटती । उसको निश्चय नहीं हुआ है। परिणमन अन्य हो रहा है। जो बात मुँहसे कहता है उसका निषेध तो कैसे कर सकते हैं? पर वह बिलकुल झूठी है। आपके पास उपयोग है । जहाँ उपयोग है, वहाँ आत्मा है। एक बार सबका स्नानसूतक कर डालें। फिर किसीके लिये स्नान करनेका नहीं रहेगा। यह जीव अकेला है, पर इसने मेरा यह नहीं किया, वह नहीं किया, यों बोलता रहता है और कहता है कि मैं अकेला पड़ गया हूँ। ये सब तो संयोग हैं। सब छूटनेवाले हैं। आत्मा कभी छूटा है? कर्मका दोष निकालता है, पर वे सब तो छूटनेके लिये आते हैं। कर्मका उदय सबको है। जीव उसमें परिणत हो जाता है। मोहनीय कर्म दुर्दशा करता है। Jain Education For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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