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________________ ४५२ उपदेशामृत करना है उसे आज बताये देता हूँ : समझ । अधिक कहूँ तो-भाव । दृढ़ता होनी चाहिये । परिणाम, भाव करते करते सफलता प्राप्त होगी। यह संबंध है तो क्या वह नहीं है? है ही। जो हमें मिला है, वही दे रहे हैं : बीस दोहे, क्षमापनाका पाठ, आठ त्रोटक छंद, छह पदका पत्र, आत्मसिद्धि । किसी भी दिन इनको नहीं भूलियेगा। क्या प्राप्त करना है? समकित । समकित समाधिमरणका कारण है। कुछ न कर सकें तो भाव अवश्य रखें। भावसे श्रद्धा होगी । मान्य हो तभी भाव होते हैं । “वह आत्मज्ञान होने तक जीवको 'मूर्तिमान आत्मज्ञानस्वरूप' ऐसे सद्गुरुदेवका निरंतर आश्रय अवश्य करने योग्य है, इसमें संशय नहीं है।" ज्ञानी क्या करते हैं कि जिससे उन्हें बंध नहीं होता? किसीको ज्ञात हो तो कहें। ___[चर्चा होनेके पश्चात् यह सब तो सुना हुआ कह रहे हैं; पर कहने जैसा नहीं है। परमकृपालुदेवने कहा था, किसीको कहना मत । अंतमें समझेगा कौन? आत्मा। ता. १-१०-३५ बीस दोहे यह सब करायेंगे। वह मंत्र है। बड़ी कठिनतासे जो कभी कभी ज्ञानीके पाससे सुननेको मिलता, उसे हम स्पष्टरूपसे कह रहे हैं। पता नहीं लगता पर ज्ञानी तो सब कह देते हैं। यह सब क्या है? कर्म फूट निकले हैं। कर्म उदयमें आते हैं, संकल्प-विकल्प आते हैं वे सब ज्ञात होते हैं। जैसा खाना खाया हो वैसी ही डकार आती है। बीस दोहे मंत्र है, जिससे तद्रूप बना जा सकेगा। गंभीरता, धीरज रखें। कोई व्यक्ति रोगी हो, पागल हुआ हो और रोगके कारण बकबक करे वैसा ही इस जीवका व्यवहार है। आत्मको देखें तो सभी समान हैं, उसमें भेद नहीं है। ___ 'हे भगवान! मैं आत्मार्थके लिये कर रहा हूँ' ऐसी भावना रखें । हम तो आत्मकल्याणके सिवाय अन्य कोई साधन नहीं बताते, उसके सिवाय हमारी अन्य कोई आज्ञा हो नहीं सकती। *** ता. २-१०-३५ जैसे स्त्रीको पतिकी वारंवार स्मृति होती है वैसे आत्माकी स्मृति होनी चाहिये। यह तो उसे भूल ही गया है! उसीके कारण यह सब है, वह न हो तो कुछ भी नहीं है, फिर भी उसे याद भी नहीं करता। सब जानेवाले हैं, मेहमान हैं। ये सब बुलाते हैं वह भी किसके कारण? उसके (आत्माके) कारण । सब शास्त्र हैं, फिर भी इसका वाचन क्यों होता है? जो हृदयमें होता है वही होठ पर आता है। उदय है। सबको उदय है, पर उसकी ओर न देखें। ता.३-१०-३५ पत्रांक ४३० का वाचन __ "कल्याण जिस मार्गसे होता है उस मार्गके दो मुख्य कारण देखनेमें आते हैं। एक तो जिस संप्रदायमें आत्मार्थके लिये सभी असंगतावाली क्रियाएँ हों, अन्य किसी भी अर्थ-प्रयोजनकी इच्छासे न हों, और निरंतर ज्ञानदशा पर जीवोंका चित्त हो, उसमें अवश्य कल्याणके उत्पन्न होनेका योग मानते हैं।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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