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________________ ४३४ उपदेशामृत ता. १८-२-३४ मनुष्यभव दुर्लभ है। यह शरीर तो संबंध है। आत्मा है, उसकी मान्यता कर लेनी है। श्रद्धाका काम है। मुमुक्षु-आत्मा कहाँ रहता होगा? प्रभुश्री-किसीने गाली दी। एक कहता है कि मुझे गाली नहीं लगती और दूसरा कहता है कि मुझे गाली लगी और उसने मारपीट की। गाली तो कहाँ लगनेवाली थी? एकने अज्ञानभाव किया इसलिये अज्ञानी कहलाया, दूसरेने ज्ञानभाव किया इसलिये ज्ञानी कहलाया। बदलना क्या है? समझ। एकने देहको अपनी मानी, घर कुटुंबको अपना माना । 'मेरा' कहने पर भी उसका हुआ नहीं, होता नहीं, मात्र माना है इसलिये अज्ञानी कहलाया। जिसे ऐसी मान्यता नहीं होती वह ज्ञानी कहलाता है। दोनों ही आत्मा हैं। एकको ज्ञानी कहा, एकको अज्ञानी कहा। सोचिये, आत्मा कहाँ रहा हुआ है ? मान्यता बदलनी है, श्रद्धा करनी है। करोड़ों रुपयोंकी प्राप्तिसे भी समझ अधिक मूल्यवान है। सत्संगसे समझ बदलती है। उसका मूल्य नहीं आंका जा सकता। रुपये मिले हो वे तो साथ नहीं चलेंगे, पर समझ साथ चलेगी। उसका मूल्य अपार है। वही कर लेनी है। __ स्टेशन जाना हो तो क्या करेंगे? चलना पड़ेगा, पुरुषार्थ करना पड़ेगा। तब स्टेशन आयेगा। पहले क्या चाहिये? सत् और शील । सत् अर्थात् आत्मा, शील अर्थात् ब्रह्मचर्य । सच्चा ब्रह्मचर्य तो ज्ञानीसे प्राप्त होगा। विषयकषायसे छूटेंगे तो ब्रह्मचर्य आयेगा। यह सब क्या है? पाँच विषय हैं और इन्द्रियाँ हैं, उन्हें छोड़ना है! देर अबेर छोड़ना तो पड़ेगा ही, तो अभीसे छोड़ दे। न हो सके तो भावना रखे । “जगतको अच्छा दिखानेका अनंत बार प्रयत्न किया।" इस जीवको झुरना चाहिये, किसके लिये? परिभ्रमणसे छूटनेके लिये । जीव क्या भूल गया है? अपने आपको ही भूल गया है। जीव आगे कब बढ़ेगा? मुमुक्षु-जिज्ञासा हो तब। प्रभुश्री-जिज्ञासा कब होगी? पूर्वकृत और पुरुषार्थकी आवश्यकता है। यह सब सुनकर कोई ऐसा सोचे कि इसमें क्या है? ऐसा तो मैंने अनेक बार सुना है । पर यों सामान्य नहीं बना डालना चाहिये। ज्ञानीकी वाणी है। ‘आत्मसिद्धि' ऐसी वैसी नहीं है। सामान्य नहीं बनाना चाहिये । सत्संग-समागम करें, जिससे भावना होगी। भावना होगी तो तद्रूप हुआ जायेगा। ता. २५-२-३४ श्रद्धा करो । घरकी-बाहरकी जो श्रद्धा है, उसे छोड़कर एक आत्माकी श्रद्धा करो। वह तो हो सकती है। ज्ञानी समझ करा कर चले जाते हैं। जीवको समझको पकड़ लेना चाहिये, यह उसके हाथमें है। किसीने थप्पड़ मारा हो तो नित्य याद आता है या नहीं? वैसे ही आत्माको याद करो। साँपने डस लिया हो, विष चढ़ गया हो, मर रहा हो और वह स्वस्थ हो जाये ऐसी यह बात है। कहाँ-कहाँसे इस मनुष्य भवमें आया है? जो कर्तव्य है उसे कर लेना चाहिये। नींदमें शक्कर खायी हो तो भी मीठी लगती है। बात श्रद्धाकी है। गुरु है सो आत्मा है, पर भेदी (भेदको जाननेवाला) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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