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________________ उपदेशसंग्रह - ५ ४३३ सत्-शीलको सँभालना है । किसीके साथ हँसकर बात न करें, उसकी अपेक्षा भजनमें समय बितायें। हमने एकके लिये सब छोड़ा है । अर्थात् आत्माके सिवाय हमें कुछ अच्छा नहीं लगता । विषय- कषायके हम शत्रु हैं । विषय- कषाय जायें नहीं तो भी उन्हें दूर रखनेका भाव करना चाहिये । आत्मा कभी मरता नहीं, पर यह जीव विषय-कषायके भावसे भव खड़े करता है । सबसे कहना है कि यदि यहाँ आकर कोई आत्महितके सिवाय अन्य कुछ करे तो संघ उसे बाहर निकाल दे । जीव विषय- कषायमें कब पड़ता है ? जब आत्माको भूलता है तब । हमें आत्मा पर लक्ष्य कराना है । आत्मा ही परमात्मा है । वही यहाँ है । अब अन्य सब जाने दो। हमारा तो लक्ष्य यही है इसलिये कोई अन्य कार्य करे तो वह हमें अच्छा नहीं लगता । हमें आत्माको भूलने नहीं देना है । हँसनेकी बातमें वह भुला दिया जाता है, भव खड़े होते हैं । यही आत्माका घात है । आपको पता नहीं है, पर सबका कल्याण होगा । श्रद्धा रखें। जगतको आत्मभावसे देखें । आत्मा अरूपी है, जिससे वह दिखायी नहीं देता, किन्तु भाव वैसा रखें। कितने ही लोगोंका यहाँ उद्धार हुआ है। कितने ही लोगोंकी गति बदल गई है, परंतु वह सब बताया नहीं जा सकता । भाव तो होते रहते हैं, पर बुरे भाव न करें, अच्छे भाव करें। वह आपके हाथमें है । यही गुप्त तप है। इसमें किसीकी आवश्यकता नहीं । निर्धन धनवान सबके पास भाव हैं । एक प्रकारका भाव करे तो नरकगतिका बंध होता है, दूसरे प्रकारका करे तो देवगतिका बंध होता है। अतः अब इतना भव सर्वत्र आत्माको देखना आरंभ कर दे । सर्वत्र अपना आत्मा देखेगा तो फिर बुरा नहीं लगेगा । तेरा कुछ नहीं बिगड़ता । जनकविदेहीको यह बात तुरत समझमें आ गयी थी कि आत्मा सत्, जगत मिथ्या। ऐसा होनेके बाद उसे लगता था कि उसका न कुछ जाता है न कुछ आता है। यह सब ‘पुद्गलका इन्द्रजालिक तमासा' है जिसे देखा कर । 'आत्मा है' ऐसा भाव लाये वह आर्य, अन्य भाव लाये वह अनार्य । हम आपको नित्य कहते हैं कि बहुत पुण्यबंध कर रहे हो । यह बात माननेमें नहीं आती । ज्ञानी श्वासोच्छ्वासमें कोटिकर्म क्षय करता है । उसे श्रद्धा है, विश्वास है कि आत्मा है । यह बात आप भी मान्य करें तो पुण्य होगा । उपयोग ही बड़ीसे बड़ी तलवार है । मर मिटनेको तैयार हो जा । ज्ञानी आत्मा देखा है । इधरसे उधर घुमाना है । समकितीकी पुद्गलरूप विष्टामें दृष्टि नहीं जाती । वह देवलोकके सुख पौद्गलिक मानता है । आत्माका आनंद है । बात मान्यताकी है । श्रवण कर, समझ आयेगी । I कोई मर गया हो और वह तेरा सगा न हो तो तू कहता है कि मुझे स्नानसूतक नहीं लगता, ऐसा ही सब जगह कर डाल । आत्मा मरता नहीं है । ज्ञानी आत्मा है । यह भी ज्ञानी, यह भी ज्ञानी ऐसा मत मान बैठ । समझ ला, विश्वास ला, अभी कर ले, फिर नहीं हो पायेगा । I 1 1 उपयोग, भाव तेरे पास है । यह बात मान्य नहीं होती । सत्-शील, त्याग - वैराग्य आदि हों तब उस द्वारसे बात प्रवेश कर जाती है । वे द्वार हैं । Jain Educatinational ✰✰ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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