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उपदेशामृत रखना चाहिये। मैं देह नहीं हूँ, इतना बोलनेमें तो अनंत समय बीत जाते हैं, पर समझ तो एक समयमें बदलती है। इस जीवके पास सब है, मात्र भाव बदलना है। वह बदलने पर इस संसारकी
ओर दृष्टि करे तो वैराग्य आयेगा ही। ज्ञानीने देखा है कि संसार जल रहा है। क्या यह झूठ है? पर अज्ञानीको देखना नहीं आता। भाव करना तो तेरे अपने हाथमें है। जहाँ भाव वहाँ परिणाम ।
जन्मसे ही यह जीव कषायकी प्रकृति लेकर आता है। मैं समझता हूँ' यह मूलसे ही होता है। स्वच्छंदका त्याग करना चाहिये। इस संसारमें विषय और कषाय ये दो मुख्य हैं। यह जीव आत्माको नहीं संभालता, लज्जाहीन है, नकटा है-शत्रुको अपने घर बुलाता है, उसीकी सेवा करता है-फिर उसका भला कैसे हो? पुकार-पुकार कर कहते हैं कि मनुष्यभव अमूल्य है, चिंतामणि है। उसे कौड़ीके मोल बेच दिया है।
समकित सरल भी है और कठिन भी है। मान्यता इस शरीरकी और उसके संबंधियोंकी है। इस मान्यताको बदल डाल । समझको बदल दे। जैसे भाव करेगा वैसा फल मिलेगा। भाव बदल डाल । इसने मुझे गाली दी, एक तो यह भाव और इसने मुझे गाली दी पर मेरे तो कुछ लगी नहीं, दूसरा यह भाव । जैसा भाव करना हो वैसा हो सकता है। पर इन दोनों भावोंमें कितना अंतर है? ___ अभ्यास बना डालें । विद्यार्थी नींदमें भी पाठ बोलते हैं, व्यापारीको व्यापार याद आता है, वैसे ही जैसे भाव करेंगे वैसे बनेंगे। सब संबंध झंखाड जैसे है। झंखाड उलझा है। बाधक बने उसे दूर हटायें । ज्ञानियोंको अनंत दया होती है।
समझ कर लें। भाव करें, पहचान करें। किसीको कहना नहीं है कि तू ऐसा कर और ऐसा न कर । मात्र समझ कर लें।
यह जीव रोगग्रस्त होता है तब रोगको याद करता है। इसी प्रकार यह संयोगोंको ही याद करता है। आत्माको याद नहीं करता। यह तो ऐसा जीवन बना डालता है कि मानो वह स्वयं तो है ही नहीं। नहीं तो आत्मा तो प्रत्यक्ष (हाजिर) है। उपयोग है तो आत्मा है। परमकृपालुदेव सच्चे हैं, वे आत्मा हैं। अन्यत्र दृष्टि न डालें। ऐसा हो जाय तो अन्य सब इन्द्रजाल जैसा लगता है। विश्वास जमा डालें । मन, वचन, कायाके योग तो मुनीम हैं, पर वे सेठ बन गये हैं।
विकार ज्ञानीके समक्ष आनेका साहस नहीं करते । किन्तु मिथ्यात्वीके यहाँ तो सेठ बने बैठे रहते हैं, क्योंकि वहाँ उन्हें आदर मिलता है।
मुमुक्षु-क्या मैं उपवास तप करूँ?
प्रभुश्री-हाँ भी नहीं कह सकते, ना भी नहीं कह सकते । स्याद्वाद है। 'ज्यां ज्यां जे जे योग्य छे, तहाँ समजवू तेह ।' यदि कोई बड़ा सेठ पावभर खिचड़ीका दान करनेके लिये पूछने आये तो उसे हाँ भी क्या कहें और ना भी कैसे कहें ? वैसे ही यहाँ यमनियमको गौण बनाकर आत्माको पहचाननेका पुरुषार्थ करना चाहिये। जिसे यहाँ आना हो उसे लौकिकभाव बाहर, द्वारके बाहर ही छोड़कर आना चाहिये । यहाँ आत्माका योगबल प्रवर्तमान है।
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