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________________ उपदेशसंग्रह-४ ४२९ सत्पुरुष कृपालुदेव जो सच्चे हैं उनसे प्रीति जोड़ें। आत्माको देहसे भिन्न जानें । मैंने उसे देखा नहीं पर ज्ञानीने देखा है, वही एकमात्र मेरा है, अतः उसके लिये पुरुषार्थ करें। खाना, पीना इत्यादि मैं नहीं। मैं तो उससे भिन्न अनाहारी आत्मा हूँ, ऐसा सोचे तो उपवाससे भी अधिक फल मिलता है। उपवास करे और चित्त खानेमें रहे तो भाव जैसा फल मिलता है। ज्ञानीने रागद्वेष इत्यादि न करनेकी आज्ञा दी हो तो आत्मार्थी तो उसका उपयोग रखकर वैसा करे ही नहीं। इसी प्रकार भक्ति, स्मरण आदि करनेको कहा हो उसका लक्ष्य न चूके और बोधका विचार करे। यों निरंतर आज्ञामें रहे तो मार्गमें टिक सकता है। ज्ञानीका योग कुछ निरंतर नहीं रहता। परंतु उन्होंने जो करनेको कहा है वह करना चाहिये। उन्हींका रटन करे तो वियोगमें भी भक्ति, प्रेम दुगुने हो जाते हैं और अपने आत्माका हित समझमें आता है। जीवको भक्ति करनी चाहिये। सभी धर्मों में भक्तिको प्रधानता दी गयी है। वैष्णव हो, मुसलमान हो, ईसाई हो, कोई भी भक्तिमें न मानते हों ऐसा नहीं है। इससे पापका नाश होता है। पापीको आर्तभक्ति करनेका अधिकार है। वैसे भक्तिके अनेक प्रकार हैं। उपदेश सुनना, वाचन, विचार, सद्गुरुमें प्रेम, भाव-ऐसी भक्ति उत्तम है। ता. २७-२-३५ परमकृपालुदेव परमात्माके प्रति अखंड प्रेम, एकरस-तन्मयता चाहते थे। ऐसी एकरस भक्ति ही मार्ग है। अपने आत्माको जानना है, इसके लिये जिसने आत्माको जाना है उसके स्मरणमें एकरस होना है। परमज्ञानी कृपालुदेव एक ही गाथाको घंटों तक एक धुनसे बोलते थे। कोई बैठा हो उसे सुनना हो तो सुने, पर अन्य बात नहीं करते थे। यों एक लयसे स्वरूपका रटन करते कि उनके बोलका प्रतिघोष होता। हमारी भी जब वह उम्र थी तब आवेशपूर्वक अखंड ध्यान करते और अपूर्व भक्ति होती । वनमें अकेले जाकर चित्रपटकी भक्ति करते । ऐसी इस भक्तिकी लय थी। अब तो वृद्धावस्थाके कारण नमस्कार भी नहीं हो पाते, थक जाते हैं ! तुम्हारी तो अभी युवावस्था है, अतः जितनी हो सके उतनी भक्ति, भक्ति और भक्ति कर लो। यहाँ तो लूटालूट करनी है! जो भाव करे वे उसके अपने हैं। अभी प्लेग चल रहा है जिससे लोग मृत्युके भयके कारण गाँवके बाहर तंबू लगाकर रहते हैं, पर भक्ति नहीं करते! बीमा करा लें तो फिर चिंता नहीं रहेगी। परमकृपालुदेव सच्चे हैं। जैसे अनंत ज्ञानी हो चुके हैं वैसे ही यथार्थ ज्ञानी वे भी थे। वे यथार्थ बोध दे गये हैं ऐसा मानकर उनकी शरण लें और उन्हें ही अपना सर्वस्व मानें। अपने स्वामी भी वे ही हैं। शेष सबके प्रति आत्मदृष्टि रखे कि मेरे कोई नहीं हैं। सभी आत्मा हैं, वे सब समान हैं। किसी पर रागद्वेष न करे। यों समभावपूर्वक व्यवहार किया जाय तो वह बीमा कर लिया माना जाता है। बीमा करने पर प्रति माह या प्रति वर्ष अमुक रकम भरनी पड़ती है, वैसे ही यहाँ पर प्रतिदिन या सारे समय जितनी भक्ति, वाचन, चिंतन, आत्म-पहचान सद्गुरु साक्षीसे होती है वह हिसाबमें गिनी जाती है। जो जितना अधिक करेगा उसका उतनी ही बड़ी रकमका बीमा होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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