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________________ ४२८ उपदेशामृत है। याद होनेका अभिमान करता है और अर्थका विचार नहीं करता, ऐसा हो गया है। उसमें तो कहा है "शुद्ध बुद्ध चैतन्यघन, स्वयंज्योति सुखधाम; बीजुं कहीओ केटलुं? कर विचार तो पाम." निधान है! उसे खोलनेके लिये उपयोग, विचार वहाँ ले जाना है। परसे, बाह्यसे उपयोगको खींचकर आत्मामें जोड़ना है। वही सच्चा पुरुषार्थ है। भक्ति दो प्रकारकी है अभेद और भेद। अभेदरूप अर्थात् भक्तिमें परमात्मासे अभिन्नता, जिसकी भक्ति करते हैं उनका और अपना स्वरूप एक है, ऐसी पहचान कर, एक होकर आत्मस्वरूप हो जाये वही सहजात्मस्वरूप है। वही सच्ची भक्ति है। मंत्रका अर्थ यह है कि हे सद्गुरु! आप मेरे सहजात्मस्वरूप हैं। आपमें और मुझमें भिन्नता, भेद नहीं है। यों अभेदरूपसे भक्तिमय रहना चाहिये। ता.२५-२-३५ जिसे छूटनेकी कामना होती है उसे ही आत्मभावना जागती है। जब तक वासना आत्माके सिवाय अन्यत्र है, तब तक मोक्षकी भावना नहीं जागती। परसे वृत्ति हटे तब स्वमें आती है। फिर उसे मुक्त करनेके साधन भक्ति, विचार, श्रद्धा परिणत होते हैं। अन्यथा मात्र दिखावा ही होता है। आत्मसुखके समझमें आने पर, परसे निवृत्त होकर आत्माके लिये पुरुषार्थ करता है। अतः वासनाका त्याग करें। ___ आत्मा और कर्म भिन्न हैं। व्याधि हो, उसे भोगना पडे, पर वह मैं नहीं हूँ। आत्मा इससे भिन्न है, वह देहरूप नहीं है। देहरूपी घरमें है, चौखट पर खड़ा है पर उससे भिन्न है। दुःख, व्याधि, साता मेरा स्वरूप नहीं। यह जड़ है और जानेवाला है, साथ रहनेवाला नहीं है। उसे निजरूप न माने तो कर्मबंध नहीं होता। यहाँ आत्मजागृतिकी, बोधबलकी आवश्यकता है। आत्मा इन्द्रियरूप नहीं है, किन्तु आत्माको प्रत्येक इन्द्रियका ज्ञान होता है। आत्मा तो ज्ञानरूप ही है। आँख, कान आदि जो दिखायी देता है उसे आत्मा न मानें। उसे पुद्गल मानें और जो पुद्गल है उसमें रागद्वेष कर बँधना नहीं चाहिये। ता. २६-२-३५ मुमुक्षु-अनंतकालसे अनेक प्रकारके पाप दोष तो किये हैं, उन्हें नष्ट करनेका मुख्य उपाय क्या है? प्रभुश्री-भक्ति, स्मरण, पश्चात्तापके भाव करे तो सर्व पापका निवारण होता है। उपवास आदि तप तो किसीसे नहीं भी हो सकते । कदाचित् कष्टदायक भी होते हैं। परंतु स्मरण-भक्ति प्रेमपूर्वक करें और भगवानका रटन करे, सद्गुरु मंत्रमें रहे तो कोटिकर्म क्षय हो जाते हैं। ऐसी इस भक्तिकी महिमा है। विकार आदि जो सत्तामें हैं वे उदयमें आये तब स्मरणमें लग जायें और इस प्रकार उनका क्षय करें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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