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उपदेशसंग्रह-४
४२७ सभी जीव अपनी-अपनी समझके अनुसार जो माना है उसे ही पकड़ बैठे हैं। श्वेतांबर, दिगंबर, रामानंदी, ढुंढिया इत्यादि सबको अपने धर्मका आग्रह होता है और उसे ही सत् मानते हैं। परंतु सत्की प्राप्ति तो किसी अपूर्व पुण्यके उदयसे होती है। वह महा दुर्लभ है। वह प्राप्त होने पर जीव अन्य सब छोड़कर एक उसे ही जानने-समझनेका प्रयत्न करता है। इसके लिये सत्संगका दीर्घकाल तक आराधन करे तब कुछ समझमें आता है और समझमें आने पर ही दृढ़ता अथवा सत् श्रद्धा होती है। पर ज्ञानीको यथार्थ पहचाननेसे ही यह समझ आती है। तब जीव समझ पाता है कि गृह कुटुंब मेरा नहीं है। मेरा तो आत्मा है। अतः व्यवहार करूँ किंतु उससे आंतरिक भिन्नता रखू । यों जीवको मोक्षकी भावना, छूटनेकी भावना जाग्रत होती है। यही लय निरंतर रहती है जिससे उसे बंध नहीं होता। 'सम्मद्दिट्ठी न करेइ पावं' यों छूटनेकी इच्छावालेको कर्मबंध नहीं होता।
ता. १०-२-३५ पाँच इन्द्रिय तकके जो जीव हैं तथा अंड़ेमें या गर्भ में हैं, उनमें भी आत्मा तो है ही। जैसे अंडेका आत्मा या मूर्छित अवस्थाका आत्मा है, वैसे ही एकेन्द्रियका आत्मा जो वृक्ष-पहाड़ आदिमें है वह वैसी अवस्थामें है, पर है तो अवश्य ही। यह जीव भी एकेन्द्रियसे लेकर सभी भव-नारकी, युगलिया और देवोंके भी कर चुका है, पर उसे अपना स्वरूप नहीं मानना चाहिये। आत्मा देहसे भिन्न है। अतः पुद्गलरूप जो देह, इन्द्रियाँ और इन्द्रियोंसे दिखायी देनेवाले विषय हैं उनमें अहंभाव या ममत्वभाव नहीं करना चाहिये। रागद्वेष और मोहका सर्वथा त्याग करें। इन्द्रिय और देहके द्वारा जो भोगा जाये उसे मैंने भोगा ऐसा न मानें। उन सबको भूल जाना चाहिये और आत्माके सिवाय अन्य किसीकी इच्छा नहीं करनी चाहिये ।
आत्मा तो है, पर उसे प्राप्त कैसे किया जाय? जिसने उसे जाना है, उसकी शरणमें जा । यही सिद्धांत अपना मित्र, बंधु या जो कहें वह है और ऐसा करनेसे ही आत्माका हित है।
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ता. २४-२-३५ विषय-कषायोंको छोड़ें। क्रोध, मान, माया, लोभ न करें। उदयमें आये हुए विषयोंको भोगना पड़े-खाना-पीना पड़े-फिर भी उससे आत्मा भिन्न है ऐसा उपयोग रखें और त्यागका भाव रखें । जिसका त्याग किया है उसकी इच्छा कभी न करें। यों भावपूर्वक त्याग रखें। कोई कहे कि मांस खा, तो क्या खायेगा? ऐसे ही जिसका त्याग किया हो उस पर अभाव ही रखें। उस ओर वृत्ति जाये ही नहीं ऐसा करें।
मुमुक्षु-देह और आत्मा भिन्न हैं तो वे एक किस प्रकार हुए? और अब वे अलग कैसे हों?
प्रभुश्री-भाव और परिणामसे एकरूप हुए लगते हैं। अब विचार करें, उन्हें अलग मानें और उसमें श्रद्धा करें तो भेदज्ञान होता है। कृपालुदेवने तो स्पष्ट समझाया है। छह पदका पत्र और आत्मसिद्धि अति गहन हैं। वे पात्र जीवको ही देते थे। पर अब तो मौखिक कर सामान्य बना दिया
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