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४३० उपदेशामृत
ता.४-९-३५ धर्मवृद्धि करें। वाचन, चिंतन, बीस दोहा, क्षमापना, आत्मसिद्धि, छह पदका पत्र, आलोचनाका नित्य पाठ करें। जितना समय मिले उतना इसीमें बितायें। यही साथ चलेगा। शेष सब तो संसारके लिये है। जो भोग शरीरसे भोगे जाते हैं, उन्हें आत्मा न समझें ।
कार्तिक सुदी ६, सं. १९९२ श्रद्धा ऐसी दृढ़ करें कि अब मैं किसी अन्यको नहीं मानूँगा । मेरा आत्मा भी ज्ञानीने देखा वैसा ही है। मैंने नहीं देखा है, पर ज्ञानीने देखा है। उनकी आज्ञासे मुझे त्रिकाल मान्य है। ऐसे ज्ञानी परमकृपालु सद्गुरु श्रीमद् राजचंद्र प्रभु है; वे मुझे सदाकाल मान्य हों। अब उन्हें ही अपना सर्वस्व मानूँ, उनके अतिरिक्त सब पर मानूं।
ता. २३-२-३६ सत्संग मुख्य है, वह अवश्य करना चाहिये। सत्संगको ही आत्मा जानें। आत्माका संग ही सत्संग है। यह जीव अनादिकालसे भटक रहा है, पर यह (सत्संग) नहीं मिला। अन्य सब जो भी करता है व्यर्थ है, नाशवान है। ऐसा अनंत बार किया है। इस जन्ममें महा दुर्लभ योग मिला है। अतः सत्संग कर लें।
अंतिम शिक्षा है। जैसे चुटकी भरते हैं वैसे चुटकी भर कर हृदयमें मान्यता कर लें कि मैं आत्मा हूँ, अन्य कुछ नहीं। देहविकार, विषयभोग मैं नहीं, मैं तो आत्मा हूँ-यह निश्चय चाहे जैसे करना है। इसके लिये सुबह, शाम, दोपहर जब भी हो सके मौखिक किये हुएका परावर्तन करें और उसे ही रटते रहें।
क्या मृत्युसे भय लगता है? मृत्युको तो प्रतिक्षण याद करें।
हमें यह विशेष ध्यान रखना चाहिये कि कोई भी काम करते हुए यह ऐसा हो या वैसा हो, इसका अच्छा हो या बुरा हो, इसका यह फल मिले, इसका अमुक फल प्राप्त हो, ऐसा मनमें, परिणाममें, किसी भी प्रकारकी राग या द्वेष संबंधी व्यक्त या अव्यक्त भावना न आने पाये। लक्ष्य और उपयोग ऐसा रखें कि संतसमागममें मुझे ज्ञानी पुरुष द्वारा कही गयी आत्मोपयोगमें रहनेकी आज्ञा मिली है, वह सत्य है। क्योंकि संतको अन्यथा कहनेका कोई प्रयोजन नहीं है। वे जो कहते हैं वह मेरे लिये हितकारी है, ऐसा मुझे मानना चाहिये। निरंतर ऐसा लक्ष्यमें रखें कि श्री संतसमागममें मिला हुआ मंत्र 'सहजात्मस्वरूप' यह आत्मा ही है, और यही मैं हैं। अन्य कुछ मेरा नहीं। मुझे उस विषयमें कुछ भी ज्ञान या पता नहीं है। यों सतत उपयोग रखें। वृत्ति क्षण क्षण बदलती है, अस्थिर है। अतः यह उपयोग रखनेका निरंतर लक्ष्य प्रेरित करें और यह कभी भूला न जाय वैसा करें।
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