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________________ उपदेशामृत जीवको जो वस्तु अच्छी नहीं लगती उसे त्यागनेको तत्पर होता है । पर अपनेको प्रिय हो वैसी वस्तु प्राप्त होने पर उसे नहीं छोड़ता । अतः वैसे त्यागका फल भी वैसा ही मिलता है। ऐसा त्याग करके वनमें रहे तो भी वासना नहीं छूटती और रागद्वेष चालू रहकर कर्मबंध कराते हैं । परंतु समकितीको घरमें रहते हुए भी प्राप्त भोगोंके प्रति वैराग्य है । वह अपनेको सबसे भिन्न मानता है, जिससे रागद्वेष नहीं करता और छूटता है । ४१८ सच्चा त्याग तो समकितीका ही है । फिर भी संसारमें लौकिक त्यागका प्रवाह चल रहा है, वह रुक नहीं सकता । अतः व्यवहारको होने दें और देखते रहें । आत्माका मार्ग लौकिक नहीं, अलौकिक है, अंतर में है, मात्र बाह्य त्यागसे प्राप्त होनेवाला नहीं है । ता. २७-१-३५ यह आश्रम कैसा है ! यहाँ तो एकमात्र आत्माकी बात है । अपने आत्माको पहचानें, इसे ही देव मानें। मैं जो कहूँगा वह मानोगे ? आत्मा ही सिद्ध है, वही देव है, उसीकी पूजा करनी है। अनंतकालसे जगतको अच्छा दिखानेके लिये परके लिये सब किया है, पर अपने आत्माके लिये कुछ नहीं किया। उसका प्रभाव नहीं बढ़ाया । ज्ञानीको तो प्रथम अपना आत्मा दिखायी देता है । वे जानते हैं कि मुझे घर, मनुष्य, सूर्य, चंद्र आदि जो कुछ दिखायी देता है वह मेरे आत्माके द्वारा दिखायी देता है । यह आत्मा अनंतगुणका स्वामी है, ज्ञान-दर्शन- चारित्रमय है । परंतु परभावमें रहकर उसके गुणोंको भुला दिया है, जिससे आवरण आ गया है । सभी धर्म करते हैं। अपने-अपने संप्रदायके अनुसार जप, तप, त्याग, दान आदि करते हैं । परंतु वहाँ आत्माका ज्ञान नहीं है । वह सब पुण्यबंध करवाकर वापस चार गतिमें ही भटकाता है । यहाँ जो करना है वह आत्मार्थके लिये करना है । अनंतकालसे अज्ञानमें भटका है, उस भ्रमणको मिटाकर सत्य सुख, अविनाशी सुख, स्वाधीन सुख प्राप्त करना है । यह समझ प्राप्त करना बहुत दुर्लभ है। सच्ची समझ तो गहरा पैठकर विचारे और सत्पुरुषके कथनको पहले मान्य करे तभी संभव है । परंतु जीवकी भूल कहाँ होती है ? सब लौकिक भावमें निकाल देता है, क्योंकि अनादिका ऐसा ही अभ्यास है । आत्मा तो अलौकिक, अपूर्व, अरूपी वस्तु है । कोई एक बड़ा महात्मा कहलाता हो और ध्यानमें बैठा हो फिर भी ज्ञानी न हो, दूसरा सब करता हो फिर भी ज्ञानी हो । अतः बाहरका नहीं देखना है । ज्ञानी खाते, पीते, बैठते, सोते-सर्वत्र प्रथम आत्माको देखता है, फिर अन्यको देखता 1 नारदजी उस राजाके दरबारमें पहुँचे । राजाने सन्मान कर उनसे आनेका कारण पूछा। मुझे कुंवरजीसे मिलना है, ऐसा कहने पर उन्हें अंतःपुरमें ले गये । डरते डरते नारदजीने कुंवरसे पूछा कि सत्संगका माहात्म्य क्या है ? कुंवरने कहा कि आप अभी भी नहीं समझे? गिरगिटके भवमें आपके दर्शन हुए और दो शब्द सुने उस पुण्यसे मैं तोता हुआ। वहाँ भी आपके दर्शन हुए जिससे मैं यहाँ राजकुमार हुआ हूँ । आप जैसे महात्मा सत्संगका यह फल है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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