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________________ ४१७ उपदेशसंग्रह-४ ता. २४-१-३५ सबको समभावसे देखें । मेरा आत्मा है वैसा ही सबका आत्मा है, ऐसा समझे तो अभिमान नहीं होता। पर्यायदृष्टिका त्याग करें। घर, पैसा, स्त्री-बच्चे कोई मेरे नहीं है। यह शरीर भी मेरा नहीं है। ऐसे तो कितने ही शरीर धारण किये और छोड़े, पर अभी तक अंत नहीं आया। धन, दौलत, अधिकार, सगे-संबंधी इस रूप मैं नहीं हूँ। मैं इन सबसे भिन्न आत्मा हूँ, ज्ञानीने देखा वैसा ज्ञानमय हूँ और वही मेरा धनदौलत सर्वस्व है, ऐसी श्रद्धा कर लेवें। यह शरीर विष्टा, मलमूत्र, हड्डी, माँस, खून, पीपसे भरी चमड़ेकी थैली है। अब मैं उसमें ममत्व नहीं करूंगा। मैं उससे भिन्न ज्ञानमय हूँ। सुंदर भोजन खाते हैं वह भी मलमूत्ररूप बन जाता है, वह इस देहके कारण ही है। ऐसे अशुचि देहको अपना स्वरूप न मानें, तथा उसे मेरा भी न मानें। जैसे किरायेके मकानका जितना लाभ लिया जा सके उतना लाभ उठाकर छोड़ दिया जाता है, वैसे ही इस देहको आत्मार्थके लिये प्रमादरहित होकर काममें लेकर अंतमें तो छोड़ देना है। मृत्युके बाद उसे जलाये, गाड़े या पानीमें डुबाये, इस प्रकार उसका नाश अवश्य है, अतः उसे मेरा न मानें, ऐसा भेदज्ञान कर लेना चाहिये। ऐसी देह पाँच इन्द्रियोंके विषयभोगके लिये नहीं है, परंतु इस अमूल्य मनुष्यदेहसे तो आत्मार्थकी साधना कर लेनी चाहिये । अन्य भवमें यह संभव नहीं होगा। जिस मनुष्यदेहमें ज्ञानीका बोध प्राप्त किया जा सकता है वह अत्यंत अमूल्य है। थोड़ासा सत्संग हो तो वह उच्च गति प्राप्त करवाकर मोक्ष प्राप्त करवाता है। अतः सत्संगको क्षणभर भी न भूलें । एक गिरगिट* थोड़ेसे सत्संगसे तोता होकर राजकुमार बना था। वेदना आये तब शरीरकी चिंता न करें कि मेरा क्या होगा? 'वेदना हो रही है, कोई सेवा नहीं करता' आदि आर्तध्यान न करें। इससे गाढ़ कर्मबंध होता है। परंतु उस समय 'पूर्व कर्मका उदय है जिससे देहमें वेदना होती है; पर मैं इससे भिन्न हूँ, जाननेवाला हूँ, वेदना आयी है उसका तो अंत आयेगा, मैं उस रूप नहीं हूँ, मेरा स्वरूप तो ज्ञानीने देखा वैसा है। अतः उन्हें याद करूँ और आत्माकी श्रद्धा रखू।" यों समाधिमें रहे तो देहाध्यास छूटता है। किसीको दोष न दे, पर सहन करके स्मरणमें रहे और दृढ़ता रखे तो छूटता है । * एक बार नारदजी वैकंठमें गये. उस समय उन्होंने विष्णु भगवानसे पूछा कि सत्संगका माहात्म्य क्या है? तब भगवानने कहा कि अमुक स्थान पर एक बटकी शाखा पर एक गिरगिट है उसे जाकर पूछो। नारदजी उस वृक्षके पास गये और गिरगिटको देखकर पूछा कि सत्संगका माहात्म्य क्या है? यह सुनते ही गिरगिट मर गया, तब नारदजीने जाकर भगवानसे सब घटना कह सुनाई। फिर भगवानने कहा कि अमुक वृक्ष पर तोतेका बच्चा है उससे पूछो। नारदजी उस वृक्षके पास गये और तोतेके बच्चेसे पूछा कि वह भी तुरत तड़फकर मर गया। नारदजीको लगा कि मेरे पूछनेसे सब मर जाते हैं यह पापका कारण है। अतः भगवानके पास जाकर कहा कि मुझे हत्या लगे ऐसा काम आप क्यों बताते हैं? भगवानने कहा कि तुम्हें सत्संगका माहात्म्य समझना है या नहीं? नारदजीने कहा कि समझना तो है। तब भगवानने कहा कि अमुक राजाके यहाँ कुंवरका जन्म हुआ है उसे जाकर पूछो Jain Education rational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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