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________________ ४१६ उपदेशामृत १“समतारसना प्याला रे, पीवे सो जाणे; छाक चढ़ी कबहू नहि ऊंतरे, तीनभुवन-सुख माणे." ता. १७-१-३५ वासना और कामसेवनके अनेक प्रकार हैं। देहमें आत्मबुद्धि करना, अच्छे वस्त्राभूषणोंसे देहका श्रृंगार करना, अच्छे-अच्छे पौष्टिक पदार्थ देहको पुष्ट करनेके लिये खाना, शरीरको बारंबार निरखना, उसीके विचारमें लिप्त रहना, ये सब कामसेवनके ही प्रकार हैं। परंतु मैं देहसे भिन्न हूँ, देह जन्म-जरा-मरण और वेदनाका कारण है, उसे आत्मार्थके लिये बितानेका कष्ट उठाना और क्षण-क्षण आत्मार्थमें ही वृत्ति रखना ऐसी चर्या ही ब्रह्मचर्य है। ता.२३-१-३५ ज्ञानीपुरुषकी पहचान होने पर सब कैसे बदल जाता है? जहाँ अंधकार हो वहाँ दीपक आ जाये तो सब यथातथ्य दिखायी देता है, ऐसे ही ज्ञानीपुरुषके मिलने पर जो देखा जाता है वह सब भिन्न प्रकारसे ही देखा जाता है। ममत्वभाव मिट जाता है, अपनेको भिन्न समझता है, जिससे विषय-कषाय छूट जाते हैं। तब जीव जो पुरुषार्थ पहले पाँच इंद्रियोंके विषयोंके लिये करता था उसके बदले आत्माकी शोध करनेमें लग जाता है। संसारके सुख उसे अग्निकी खाई जैसे लगते हैं, जिससे उस ओर जाता ही नहीं; और मैं कौन हूँ? कहाँसे आया हूँ? मेरा स्वरूप कैसा है? आदि जाननेका प्रयत्न करता है। संक्षेपमें, जीव अनादिसे सो रहा है वह जाग्रत हो जाता है, अभी तक जो जो साधन किये वे सब निष्फल लक्ष्यरहित बाण जैसे लगते हैं। ज्ञानीपुरुषको पहचानने पर यह समझमें आता है कि लक्ष्य कहाँ करना? जिससे उसके सब साधन व्रत, नियम सफल होते हैं। अभी तक तो इस लोकके सुख या परलोकके सुखके लिये साधन किये। अब मात्र आत्माको छुड़ानेके लिये, बंधनसे मुक्त करनेके लिये, ज्ञानीकी आज्ञानुसार प्रवृत्ति करे तो सर्व साधन सफल होने योग्य हैं। अनंत ज्ञानी हो गये हैं उन्होंने कहा है और अभी जो ज्ञानी हैं वे भी ऐसा ही कह रहे हैं कि तेरा एक आत्मा ही है। अतः ऐसा मानना चाहिये कि आस्रव, बंध, संयोग-वियोग आते हैं और जाते हैं, वह मेरा स्वरूप नहीं है, उन्हें देखनेवाला मैं हूँ, परंतु तद्रूप मैं नहीं हूँ-यह हृदयमें खोदकर लिख रखें, भूलें नहीं। जो बाँधा है उसे भोगना पड़ता है। पर उसमें तन्मय न होवें । मैं सबसे सर्व प्रकारसे भिन्न हूँ, ऐसा चिंतन कर उसमें इष्ट-अनिष्टपना न करें। ज्ञानी सबमें आत्मा ही देखते हैं। प्रत्येक वस्तु जो दिखायी देती है, उसे देखनेवाला आत्मा है। वृक्ष, पत्ते, मनुष्य, जंतु आदि जो सर्व दिखाई देते हैं वे तो पुद्गल हैं, कर्म हैं, पर्याय हैं। उनमें जो आत्मा रहा हुआ है उसे ज्ञानी जानते हैं और देखते हैं। अतः मुझे वह मान्य है। मन, वचन, काया और अनेक अच्छे-बुरे भाव जो क्षण-क्षण आते हैं, वे कर्म हैं, पुद्गल हैं। १. अर्थ-समतारूपी रसका प्याला जो पीता है वही उसके आनंदको जानता है। एक बार इसका नशा चढ़ गया, वह कभी नहीं उतरता, वह त्रिलोकके सुखका अनुभव करता है। अर्थात् तीनों लोकमें वही सबसे ज्यादा सुखी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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