SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 512
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपदेशसंग्रह-४ ४१५ किसीको ऐसा लगता है कि ध्यानमें है वह सच्चा योगी है। पर खुली आँखवालेको केवलज्ञान भी प्रकट हो सकता है, क्योंकि उसके वैसे परिणाम प्रवर्तित हो रहे होते हैं। ज्ञानी बोलते हैं वह अनुभवपूर्ण होता है। वे अंतरंग परिणामको पहचानते हैं, मोहादि दूर करनेके उपाय भी जानते हैं। जिससे उनके बोल तलस्पर्शी होते हैं और उसका आश्चर्यजनक प्रभाव होता है! अज्ञानीके वचन वैसा प्रभाव नहीं करते। ता. १४-१-३५ मुझे सुख है ऐसा मानता है वहाँ भी वेदनी है। साता और असाता दोनों वेदनी हैं। उन्हें भोगता है और मैंने सुख-दुःख भोगा ऐसा मानता है, परंतु उसका तो नाश है। पर आत्माका नाश किसीने देखा है? प्रत्येक आत्मा अपने गुण अनंत ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य सहित अमर है। वह कभी नहीं मरता । उसका जो सुख है उसे तो ज्ञानीने जाना है और जिसने जाना है वही बता सकता है। अनादिसे जो विपरीत समझ है उसे सीधी करनी है, उससे अनित्य, रूपी पदार्थों का मोह छूटकर आत्मसुख प्राप्त होगा। फिर तो सिर पर अंगारे डालने पर भी ऐसा लगेगा कि 'मेरा क्या जलता है?' घानीमें पीलने पर भी शांत रहेगा। ऐसी अद्भुत दशा हो जाती है। क्योंकि समकित होनेसे उसने अपना स्वरूप देहसे भिन्न अनुभव किया है। उसे कोई गाली दे तो सोचता है कि मुझे कहाँ गाली लगी है? ये तो भाषाके पुद्गल थे जो उड़ गये। वह ऐसा समझता है कि यह तो मेरे सिर पर बोझ था वह हलका हुआ । मेरे इतने कर्म क्षय हुए। पर अज्ञानी तो उससे वैर निकालनेके लिये सिर फोड़ डालता है। समकिती या आत्मज्ञानी सीधा विचार करता है, क्योंकि वह सबको अनित्य देखता है। क्षण-क्षण सब नष्ट हो रहा है इसमें मोह क्या करना? अपने आत्माका सुख जो सच्चा है, शाश्वत है उसीका अनुभव करना योग्य है। प्रभुश्री-सम अर्थात् क्या? मुमुक्षु-रागद्वेष अर्थात् चारित्रमोहनीय और अज्ञान अर्थात् दर्शनमोहनीय, इनका अभाव होने पर समभाव प्रकट होता है। प्रभुश्री-छह द्रव्य हैं, वे प्रत्येक अलग ही हैं। वे एक दूसरेमें परिणत हो ही नहीं सकते। इसलिये जड़ और चेतन भी एक दूसरेमें परिणत नहीं हो सकते । कृपालुदेवने कहा है कि चेतनके परिणाम चेतन और जड़के परिणाम जड़ हैं; एक परमाणु है जिसे कोई देख नहीं सकता, परंतु वह त्रिकाल उसी रूपमें है। उसमें जो पर्यायभेद होता है वह भी जड़ रूप ही होता है। वैसे ही आत्माके गुण-पर्याय चेतन हैं। कर्मका लेप है उससे उसके गुण-पर्याय कभी नष्ट हुए नहीं और होंगे नहीं। अतः सभी जीव सिद्धस्वरूप हैं ऐसा समझे तो किसीके प्रति रागद्वेष नहीं होते। रागद्वेष और मोह अर्थात् अज्ञानदृष्टि जाय तब अपने स्वरूपमें स्थिर होता है अर्थात् आत्माका जो स्थिर रूप है, उसका अनुभव करता है। इससे सब पर समान दृष्टि अर्थात् समभाव आता है। तभी संपूर्ण जगत आत्मारूप माननेमें आता है। जो हो वह योग्य ही माननेमें आता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy