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उपदेशसंग्रह-४ है। आत्माके सिवाय किसीमें भी अपनापन नहीं मानता। उसे आत्माका निरंतर ध्यान या अनुभव होता है।
कृपालुदेव संसारमें थे किंतु आत्मज्ञानी थे, जिससे देवोंको भी पूज्य थे। जो देखना है वह ऊपरका रूप या आचरण नहीं, परंतु आत्माकी दशा, और जहाँ वह हो वहाँ फिर श्रद्धा ही करनी है।
इस आश्रममें कृपालुदेव श्रीमद् राजचंद्रकी आज्ञा प्रवर्तित है। वे महान अद्भुत ज्ञानी है। इस पुण्यभूमिका माहात्म्य ही अलग है। यहाँ रहनेवाले जीव भी पुण्यशाली हैं। पर वह ऊपरसे नहीं दीख सकता, क्योंकि धन, पैसा नहीं है कि लाख-दो लाख दिखायी दें। यहाँ तो आत्माके भाव हैं। आत्माके भाव ही ऊँचीसे ऊँची दशा प्राप्त करा सकते हैं।
अनेक स्थानों पर भाईबंदी, मित्रता, पहचान कर प्रेमको बिखेर दिया है, उन सबसे छूटना पड़ेगा, क्योंकि यह तो वीतराग मार्ग है। व्यवहार में सब करना पड़े, किन्तु अंतरंगसे सब तोड़ डालें
और आत्मार्थके लिये ही जियें । समझ लें कि आज ही मृत्यु हो गयी, तो सब छोड़ना पड़ेगा न? ऐसे ही बिना मृत्युके भी ममत्व छोड़ दें।
धर्मका पालन करनेके लिये चाहे जैसे परिषह भी सहन करने चाहिये । खड़े ही खड़े जल जानेका प्रसंग आ जाय तो भी आत्मभाव न भूलें।
ता. २७-१-३५ सत्संगका माहात्म्य समझना चाहिये। अपने पास कोई मूल्यवान वस्तु हो, आभूषण हो तो मानता है कि मेरे पास यह है। उसे उसका माहात्म्य लगता है कि मेरे पास यह सुंदर, बहुमूल्य उपयोगी वस्तु है, और उसमें ममत्व करता है। ऐसे ही यह सत्संग आत्माके लिये परम हितकारी है, उसका माहात्म्य समझमें आये तो उसे गलेका हार माने और उसीका माहात्म्य सबसे अधिक लगे, तब दशा प्रकट होती है। मोक्षकी अभिलाषा जाग्रत होने पर ऐसे भाव प्रकट होते हैं। मोक्ष जाना हो, आत्माको दुःखसे मुक्तकर अनंत सुख प्राप्त करना हो, सद्गति प्राप्त करनी हो तो सत्संगकी अवश्य इच्छा करे और उसका सन्मान करे।
ता. २९-१-३५ क्रोध करना तो अपने कर्मशत्रुके प्रति करना। मान सत्पुरुषकी भक्तिके परिणाममें करना । माया परदुःख-निवारणमें करनी। लोभ क्षमा धारण करनेमें करना। राग सत्पुरुषके प्रति या देवगुरु-धर्मके प्रति करना। द्वेष, अरति विषयोंके प्रति करना । विषयविकारकी बुद्धिके प्रति द्वेषभाव करना । सर्व जीवोंके प्रति समभाव रखनेमें मोह करना। यों इन दोषोंको सुलटा कर गुणोंमें बदल डालें।
समकिती जीवको आत्माके सिवाय अन्य सब पर है, अपनेसे भिन्न है, देह भी अपनी नहीं है, अतः जैसे परायी वस्तु जलती हो तो हमें कोई दुःख नहीं होता, वैसे ही देहका दुःख भी स्वयंको नहीं लगता। उस दुःखके समय उनमें आत्मवीर्य अधिक स्फुरित होता है, जिससे वह दुःख लाभका
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