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________________ ४१० उपदेशामृत “नहि दे तू उपदेशकुं, प्रथम लेहि उपदेश; सबसे न्यारा अगम है, वो ज्ञानीका देश." जिस बातका स्वयं अनुभव न किया हो, फिर भी मानो अनुभव किया हो ऐसा बताये वह मिथ्यात्वी कहलाता है। ऐसा करके कितना समय निकालना है? अतः अब अन्य किसी प्रकारकी पंचायत न कर आत्माकी पहचान कर लें और एक आत्मार्थके लिये सब कुछ करें। आत्मा है वह छोटा, बड़ा, वृद्ध, युवान, स्त्री, पुरुष नहीं है। ये सब तो पर्याय हैं। पर्यायदृष्टिको छोड़कर स्वरूपमें आये तो कर्मबंध रुकता है। ता. १५-५-३४ जो बात पूनामें हुई थी, वही सबको मान्य करनी चाहिये । कृपालुदेव पर प्रेम होना चाहिये। अन्यसे प्रीति तोड़े वह यहाँ जोड़े। अतः सभीसे प्रीति समेटकर आत्मार्थके लिये उनमें प्रेम करें। यह प्रेम ही श्रद्धा है और यह श्रद्धा होने पर ज्ञानीका बोध परिणत होता है तथा ज्ञान प्राप्त होता है। ता. १३-११-३४ जीवको क्या करना है? भेदज्ञान । वह किस प्रकार होता है? वह यों कि यह शरीर मेरा नहीं है, वचन, मन भी मेरे नहीं हैं। मैं इनसे भिन्न आत्मा हूँ। तो क्या इन्हें नहीं रखना? रखना, पर एकमात्र आत्मार्थके लिये। जो करें वह अनिवार्य समझकर आत्मार्थके लिये करें। खाना, पीना, पहनना, शौच करना, बोलना, हँसना, रोना, चलना, छोड़ना, लेना, देखना आदि सर्व किसके लिये? एक आत्मार्थके लिये करें। मैं इससे भिन्न हूँ, पर उदय आने पर भोगना पड़ता है। मुझे तो एकमात्र आत्मार्थ ही करना है। आत्मार्थमें लक्ष्य रखें कि जिससे वैसे उदय फिर न आयें। खाये इसलिये कि फिर न खाना पड़े। इसी प्रकार सब कुछ करें फिर न करनेके लिये, छोड़ने और त्यागनेके लिये । एक आत्मा ही मेरा है, उसे ज्ञानीने देखा है, अतः ज्ञानीकी आज्ञाका आराधन करें। जिससे आत्महित हो वही करना यह विवेक है। रागद्वेष न करें, देहादि परपदार्थमें अहंभाव, ममत्वभाव न करें। अभिमानका त्याग करें। आत्माका कुछ नहीं है, आत्मा सबसे भिन्न है। सबका विनय करें। आत्माको सबसे भिन्न स्पष्ट देखें । जैसे उत्तर और दक्षिण दोनों अलग हैं, अंधकार और प्रकाश जैसे भिन्न हैं वैसे ही आत्मा भिन्न है। उसे प्राप्त करनेके लिये सब कुछ करें। ता. १७-११-३४ देहाध्यासको दूर करें। आत्मा इस देहमें पाँवसे सिर तक व्याप्त है, उसमें वृत्तिको पिरोयें। पाँच इन्द्रियाँ और छठा मन ये छह खिड़कियाँ हैं । उनके द्वारा वृत्ति बाहर जाती है, वहाँसे खींचकर आत्मामें लायें। जो दीखता है वह, आत्मा है तो दीखता है। अतः उसे विस्मृत न करें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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