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________________ उपदेशसंग्रह-४ ४११ आत्माके पास भाव और उपयोग है, उन्हें छूटनेके लिये, संसारसे मुक्त होनेके लिये प्रवर्तित करें। प्रेम करें तो सत्पुरुष पर करें। इसी प्रकार अपने आत्माके प्रति भी प्रीति, दया, प्रेमभाव आदि सब करें, क्योंकि अनादिकालसे परभावमें जानेके कारण वह बंधनमें पड़ा है। क्षण क्षण अनंतदुःख भोगता है और अपनी अनंत समृद्धिको भूल गया है। उस पर दया कर कर्मबंधनसे छुड़ानेके लिये आत्मभावमें आयें। ____ आत्मभाव प्राप्त करनेके लिये गुरुगम चाहिये, क्योंकि जैसे तिजोरी चाबीके बिना नहीं खुलती वैसे ही आत्माकी पहचान सद्गुरु करायें तभी होती है। अतः उनकी आज्ञाको बराबर समझकर दृढ़तासे आराधन करें। भ्राँतिमें न रहें। किसी पर रागद्वेष न करें। सब पर समभाव रखें। मैत्रीभाव सब प्राणी पर समान रखें। चार भावनाएँ भाते हुए व्यवहारमें प्रवृत्ति करें। ता.१८-११-३४ [धर्मध्यानकी पृथ्वी आदि पाँच धारणाओंके वाचन पर] ये कल्पनाएँ चित्तको एकाग्र करनेके लिये कही है कि जिससे जीव वृत्तिको सबसे समेटकर आत्मामें लाये। परंतु ध्यानके लिये तो गुरुगम चाहिये। चाबीके बिना ताला नहीं खुलता। कृपालुदेवने गुरुआज्ञापूर्वक विचार ध्यान करनेको कहा है। मुख्य बात सत् और शीलका पालन कर श्रद्धाको दृढ़ करें। रस्सी हाथमें आये तो कूएसे बाहर निकला जाय। अतः श्रद्धारूपी जो रस्सी पकड़ी है उसे हाथमेंसे क्षणभर भी छूटने नहीं देना चाहिये-विस्मृति नहीं करनी चाहिये। श्रद्धा किसकी करें? कहाँ करे? घर घरका समकित है वह नहीं, पर सच्चे ज्ञानी बतावें उसीको पकड़ लेवें। तभी इस त्रिविध तापसे छूटा जा सकेगा। 'सद्धा परम दुल्लहा' ‘एक पल भी आपके कहे हुए तत्त्वकी शंका न हो' यह लक्ष्यमें रखें और विचारपूर्वक आज्ञाका आराधन करें। सर्वत्र आत्मा देखें । सद्व्यवहारका आचरण करें। ता. १८-११-३४ अब दृष्टि बदलनी है। जीव इस ओर जा रहा है वहाँसे लौटकर सामनेकी ओर जाना है। जाना है मोक्षमें और कार्य संसारके करता है-राग-द्वेष-मोह करता है, प्रीति-अप्रीति करता है, अहंभाव-ममत्वभाव करता है-ये बंधन हैं। ज्ञानी व्यवहारमें बच्चोंको खिलाते हैं, प्रवृत्ति करते हैं, किन्तु उनका परिणमन आत्मामें है। उनको सबके प्रति समभाव है। आत्माको देखते हैं और उसके कल्याणकी इच्छा करते हैं। जो विपरीत बुद्धि हो गयी है उसे छोड़नी है। देहसे लेकर सभी परवस्तुमें प्रीति करता है। वहाँसे लौटाकर आत्मामें प्रीति करनी है। इसका सतत अभ्यास करना है। इसीके लिये पढ़ना है, सीखना है। अतः इसका उपयोग रखें। गाड़ी घोड़ा आदि धमाल देखकर सोचें कि वह माया है, नाशवान है। उन्हें देखनेवाला मेरा आत्मा तो अविनाशी है। अतः वही राग करने योग्य है। सत्पुरुषसे भेद न रखें । मन, वचन, कायासे उनकी आज्ञाका आराधन करें । सत्पुरुष पर श्रद्धा रखें । वे कहें उसे सत्य मानें-रातको दिन कहें तो भी। और सर्व प्रकारके आग्रहका त्याग करें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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