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________________ उपदेशसंग्रह-४ ४०९ देवगतिमें शरीरका सुख है तब मानसिक दुःख अन्य तीन गतियोंसे अधिक है। एक दूसरेके सुखकी ईर्ष्या और अपहरणकी इच्छा रहती है। वहाँका सुख भी कैसा है? वहाँ तुच्छ भोग ही भोगे जाते हैं। वे भी क्षणिक और नाशवान है। कुछ अधिक समय भोग कर उसका भी अंत होता है तथा कषायके कारण देवको फिर नीच गतिमें जाना पड़ता है। जब शरीर त्याग करनेका समय आता है तब उन भोगोंको छोड़ते हुए अत्यंत आर्तध्यान होनेसे तुच्छ गतिमें जा पड़ता है। अतः देवके भोग भी त्याज्य हैं, चाहने योग्य नहीं। ये सुख भी परिणाममें दुःखरूप हैं। मात्र आत्मज्ञानी देवोंको ही किंचित् सच्चा सुख होता है क्योंकि आत्मज्ञानके कारण उन्हें वैसे कषाय नहीं होते और आयुष्य पूर्णकर देर अबेरसे मोक्ष प्राप्त करते हैं। . ___चारों गति मात्र दुःखरूप है। आत्मा उनमें बँधा है उसे अब छुड़ाना है। इस मनुष्य देहमें ही वह हो सकता है। इस जन्मकी प्रत्येक क्षण महा अमूल्य है । अतः सद्गुरुकी आज्ञाका विचार कर, उनके वचन गाँठमें बाँधकर अपने आत्मामें परिणत करें। ता.३१-५-३३ अन्य सबसे दृष्टि हटाकर एकमात्र स्व-आत्मामें ही रहें। व्यवहार में बाहरसे प्रवृत्ति करनी पड़े, परंतु अपने आत्माको घड़ी भरके लिये भी न भूलें । उपयोगमें रहें और आत्माको ही सर्वस्व मानकर रागद्वेष न करें। जो कुछ भाव, अनुराग करना हो वह आत्मासे ही करें। इसके कारण ही यह देह, मन आदि तथा संबंधी, संयोग प्राप्त हुए हैं, अतः इसीमें स्थिर रहें। ता.८-५-३४ मुमुक्षु-जीव इतना इतना सुनता है, फिर भी परिणमित क्यों नहीं होता? प्रभुश्री-एक कानसे सुनकर दूसरे कानसे निकाल देता है। मुमुक्षु-दो कान हैं इसलिये ऐसा होता है। एक ही कान हो तो सब अंदर ही रहे ! प्रभुश्री-विक्रम राजाने तीन पुतलियोंकी परीक्षा कर देखी। एकके कानमें डाली हुई सलाई दूसरे कानसे आरपार निकल गई। दूसरीके कानमें डाली तो थोड़ी देर रुककर मुँहसे निकल गयी। और तीसरीके कानमें डाली तो निकली ही नहीं। अतः उसका मूल्य एक लाख आंका गया। वैसे ही जो बोध सुने उसे मनमें धारण करे और विचारे तो आत्मामें परिणत होता है। करना यही है कि बाह्यसे निवृत्त होकर आत्मामें परिणत होना है। एक व्यक्ति बहुत शास्त्र पढ़ा हो और सब समझा सकता हो, पर आत्माका अनुभव नहीं हुआ हो तो वह सब व्यर्थ है। शास्त्रज्ञान न हो पर श्रद्धा तथा अनुभव हो तो वह अगले जन्ममें भी साथ जाता है और जीवको मोक्ष प्राप्त कराता है। ता. ११-५-३४ योग्यता न होने पर भी अपनेको छठे, सातवें गुणस्थानमें मानकर मान प्राप्त करता है। ध्यान कहाँ है कि समकिती जीवकी कैसी दशा होती है? स्वयं जानता तो कुछ नहीं और उपदेश देने चल पड़ता है, ज्ञानी बन बैठता है। इससे मात्र भवभ्रमण होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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