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उपदेशामृत करना चाहिये। किसीके प्रति इष्ट या अनिष्टभाव न कर, मध्यस्थभाव, समताभावसे रहें । तप, जप आदि मात्र आत्मप्राप्तिके लिये निष्काम भावसे करें। किसी प्रकारकी इच्छा न रखें। सुकृत्य करनेमें भी आत्महितका लक्ष्य रखें। अपने अनंत दोषोंको ढूँढ ढूँढकर दूर करनेका प्रयत्न करें और सद्गुरुके चरणमें सर्व अर्पण कर, उनकी आज्ञाका आराधन करें। समभावमें सर्व समाहित है। प्राप्त हुए प्रसंगोंमें रति अरति न करें। सहनशीलता रखें। सुख और दुःखमें समान रहें। सर्व जीवोंके प्रति छोटे-बड़े, अच्छे बुरे, प्रिय-अप्रिय, ऊँचनीचके भेद दूर कर मनसे सबके प्रति समदृष्टि रखकर, सबके पारमार्थिक श्रेयकी चिंता करें। देहकी और तत्संबंधी विषयोंकी ममता दूर करें।
ता. २४-५-३३ अब पकड़ कर लें। आत्मा अनादिकालसे भटका है, पर अभी अंत नहीं आया और न आयेगा, अतः जन्ममरणसे छूटनेकी सतत भावना कर ज्ञानीकी शरणमें रहें।
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ता. २६-५-३३ मन, वचन, कायाके योगसे निवृत्त होकर आत्माको आत्मामें स्थिर करनेको उत्कृष्ट ध्यान कहा है। इस प्रकार अन्य सब ओरसे आत्माके उपयोगको निवृत्त कर आत्माका ध्यान करें। वह कैसे? जैसे सूर्यका प्रकाश सर्वत्र है, वैसे ही यह आत्मा संपूर्ण विश्वका प्रकाशक है। जैसे चंद्र भूमिको प्रकाशित करता है, वैसे ही इस शरीरके अणु अणुमें व्याप्त है ऐसे आत्माका चिंतन करें। 'आत्मसिद्धि में 'आत्मा है' इस पदकी गाथाओंमें जैसा वर्णन किया गया है, वैसे आत्माका ध्यान करें। तथा
'छे देहादिथी भिन्न आतमा रे, उपयोगी सदा अविनाश ।' ऐसा ध्यान करें। जब इस स्वरूपमें ही स्थिरता होती है तब चारित्र कहा जाता है, मात्र साधुका वेष अंगीकार करनेसे नहीं।
सर्व जीवोंको सिद्धके समान समझें। छोटा-बड़ा, पढ़-अनपढ़, स्त्री-पुरुष, बालक-वृद्ध ये भेद वास्तविक नहीं है। सभी समान हैं और अपने आत्माके समान हैं। अपना आत्मा ही परमात्मा जैसा है, ऐसा समझकर उस परमात्मस्वरूपका ध्यान कर राग-द्वेषमें न पड़ें। किसी पर मोह कर राग न करें और किसीको तुच्छ समझकर द्वेष न करें। इस प्रकार पुरुषार्थ करनेसे वृत्ति परमें जाती रुकती है और ध्यानमें रहा जा सकता है।
ता. २७-५-३३ चारों गतिमें अनंत दुःख हैं। नरकगति और तिर्यंचगतिमें तो असह्य हैं। मनुष्यगतिमें भी भूख, निर्धनता, मान-अपमान, दरिद्रता, रोग और बुढ़ापे के दुःख हैं। शरीर दिन-दिन क्षीण होता है और विषय-कषायसे तथा पाँच इन्द्रियोंके मृगतृष्णा जैसे सुखकी इच्छासे यह आत्मा अनंत दुःखका भोक्ता होता है।
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