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________________ ४०७ उपदेशसंग्रह-४ ओढ़ना आदि मोहसे, स्वादसे, देह पर मूर्छा रखकर, स्वयंको देहरूप मानकर करे तो वह विषके समान है। यदि इस प्रकार होता हो तो मर जाना श्रेष्ठ है, कि जिससे नये भव खड़े होते तो अटकें ! इस प्रकार देहको संभालनेमें आत्मार्थ जाने और मूर्छाका सर्वथा त्याग करें; कारण, देहको स्वयंरूप जाना उतना आत्माको भुलाया। भेदज्ञान कर लेने पर ही यह बात सुगम है। अपनी स्त्रीके सिवाय अन्य सबके प्रति माँ बहनके भावसे देखें । बुरे भावसे किसी पर दृष्टि न करें और संयमपूर्वक व्यवहार करें। सत् और शील महान हैं। जहाँ ये हों वहीं धर्म हो सकता है। अतः पुरुषको परस्त्रीका और स्त्रीको परपुरुषका सर्वथा त्याग रखना चाहिये। ___ ता. १६-५-३३ इस जीवने परको अपना मान रखा है। 'मैं स्त्री, मैं बनिया, मैं ब्राह्मण, मैं पुरुष' यों हिंदु, पारसी आदि कहलाता हो तो अपनेको तद्रूप मान बैठा है, पर वह मिथ्या है। ऐसे तो उसने अनेक भव किये हैं और उनका नाश हुआ है, फिर भी भूलता है। सगे आदिको अपना मानता है जिससे दुःखी होकर गाढ़ कर्मबंध करता है, उसके बदले ऐसा समझें कि यह सब अपने स्वरूपसे भिन्न है। मैं तो आत्मा हूँ। इसमेंसे कोई मेरा नहीं। यह देह भी मैं नहीं हूँ। मेरा तो एक आत्मस्वरूप है। ऐसा ज्ञानियोंने कहा है अतः सत्य है । ये सब संयोग हैं वे मोह करवाते हैं; पर मैं उन्हें सच्चे नहीं मानूँगा। ता. १७-५-३३ देहसे आत्मा भिन्न है; देह मेरा स्वरूप नहीं है, वह मेरी नहीं है, उसे जो होता है वह मुझे नहीं होता; ऐसा सोचकर इसका सर्व मोह त्याग दें। जड़ और चेतन भिन्न हैं, ऐसी श्रद्धा रखकर आत्माकी पहचान करें। अभी आत्मस्वरूप नहीं जाना है और अनादिका अभ्यास होनेसे अपनेको देहरूप मानता है। पर ज्ञानियोंने कहा है कि तू भिन्न है, तेरा स्वरूप तो और ही है! यह श्रद्धा रखकर, देहाध्यास छोड़कर, अब उस संबंधमें किसी प्रकारका मोह न कर यह भव तो आत्माके लिये ही बितायें। ता. १९-५-३३ यह जीव कैसे अनर्थदंड करता है वह भी देखने योग्य है। कोई पुरुष या स्त्री किसीके प्रति कुदृष्टि कर भोग भोगनेका विचार करे, ऐसी इच्छा करे तो उस कुभावनासे वह पाप कर्म बाँधकर कुगतिमें जाता है। वास्तवमें कुछ किया नहीं जाता, भोग भोगे नहीं जाते किन्तु भावसे, विचारमात्रसे कर्म बाँधता है जो अनर्थदंडका एक प्रकार है। __यदि कोई ऐसी भावना करे कि मुझे संयम हो तो कितना अच्छा! ऐसे संयमवाले जीवोंकी ओर दृष्टि रखकर ऐसी भावना करे तो वह पुण्य बाँधकर देवलोकमें जाता है। एक अशुभ भाव है, दूसरा शुभ भाव है, इन दोके अतिरिक्त तीसरा शुद्ध भाव है। जिसे मोक्षके लिये प्रयत्न करना है उसे तो शुद्ध भावको ही समझना चाहिये और उसके लिये पुरुषार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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