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उपदेशामृत समकित हुआ हो तो समभाव रहता है, किसीके प्रति रागद्वेष नहीं होता; क्योंकि स्वयंको देहसे भिन्न जाना है अर्थात् आत्माको जाना है, वैसा ही दूसरोंको देखता है और परवस्तुसे अलग रहता है। यह अच्छा, यह बुरा, यह अच्छा लगता है, यह अच्छा नहीं लगता ऐसा नहीं होता। उसकी दृष्टि आत्माकी ओर होती है। व्यवहारमें प्रवृत्ति करते हुए भी उससे भिन्न रहता है।
अंतरदृष्टि रखे, स्वयंको देहसे भिन्न ज्ञानीने बताया वैसा माने, स्वयंने आत्माको नहीं देखा है, पर ज्ञानीने कहा उसे सत्य माने और ज्ञानीने कहा कि रागद्वेष न करें तो याद रखकर न करे; अपनी बुद्धिको छोड़कर ज्ञानीकी आज्ञामें चले तभी मार्ग मिल सकता है। स्वच्छंदको रोकना बड़ी बात है। जब तक जीव इसे नहीं रोकता तब तक जीव जिन अनंत दोषोंसे भरा है उन दोषोंका टलना संभव नहीं है। स्वच्छंदका त्यागकर श्रद्धा करनी चाहिये और आज्ञाका पालन करना चाहिये।
ता.३-११-३२ सत्पुरुष द्वारा प्रत्याख्यान प्राप्त हुए हों तो महाउपकारी हैं।
परभावमें जानेसे आत्मा बँधता है; पर व्रत लिया अर्थात् 'इसका मेरे त्याग है' ऐसा मनमें होनेसे मैं इससे भिन्न हूँ ऐसा विचार आता है जिससे परभावसे मुक्त होता है।
शीलका माहात्म्य तो अनंत है। स्वयं आत्मा है, शरीरसे भिन्न है। देहका धर्म अपना धर्म नहीं है। स्वयं व्यवहारमें प्रवृत्ति करे, पर अंतरसे अलग रहे। ऐसा आंतरिक त्याग हो, आत्माकी पहचान हो और आत्मभावमें स्थिति हो तब शील पाला कहा जाता है। पर किसी परभावमें अर्थात् रागद्वेष, विषय-कषायमें परिणति कर स्वयंका विस्मरण नहीं होना चाहिये। ___आत्माको तो सत्पुरुषके वचनसे मान्य करता है, फिर भी रागद्वेष होता है, इसका कारण क्या है? यहाँ अनादिका अभ्यास इतना है कि देहाध्यास दृढ़ हो गया है। स्वप्नमें भी साँप देखे तो डर लगता है, क्योंकि स्वयंको देहरूप समझा है। जैसे जैसे वह सत्पुरुषका बोध सुनेगा, उस पर विचार करेगा तथा मान्य करेगा, वैसे वैसे देहाध्यास कम होगा और आत्मभाव जाग्रत होगा। पूरा आधार भाव पर है। शुभाशुभ दोनों भाव बंध अथवा पापरूप हैं । शुद्ध अथवा आत्मभाव ही मात्र छूटनेमें सहायक है।
ता. १०-११-३२ तू आत्मा है, ऐसा समझ और सबमें आत्मा ही देख । इस हड्डी चमड़ेकी देहमें मोहित होकर बंधन मत कर। तू अपनेको बार बार याद कर। ज्ञानीने जो तेरा स्वरूप बताया है उसका साक्षात्कार कर। यह ब्रह्मचर्यव्रत द्रव्य-भावसे ग्रहण हुआ है वह बहुत शुभ हुआ है, वह अवश्य मोक्ष प्राप्त करवायेगा। इसका पालन करनेमें द्रव्यभावसे भी सावधानी रखें। बुरे निमित्त न बनने दें, सावधान रहें। यह देह है तब तक तो प्रतिज्ञा दृढ़ रखें। जो त्याग किया है, वह आत्मभावसे अंतरंगसे होना चाहिये । मनसे मोह, राग न हो इसके लिये उदय आने पर चित्तवृत्तिको वाचन, विचार या आत्मचिंतनमें रोकें। दृढ़तासे व्रत लिया जिससे यह जीव संसारसमुद्रको पार कर किनारे
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