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उपदेशसंग्रह-४
४०५ पहुँच गया है। अब मात्र एक आत्माको पहचानना है। सच्चा सुख बाहर नहीं, आत्मामें है। अतः उसे प्राप्त करनेके लिये आत्मचिंतन करें । परमेंसे प्रीतिको निकालकर, जिसने आत्माकी पहचान करायी उस परमपुरुषमें जोडें ।
ता. ११-११-३२ आत्मा ही परमात्मा है-निश्चयके इस तत्त्ववचनको सुनकर कोई अपनेको परमात्मा मान बैठे तो वह मिथ्या है। जब तक परमात्माके गुण प्रकट न हों तब तक मात्र मुँहसे बोलनेसे कुछ नहीं होता। इसीलिये 'समाधिशतक' जैसा शास्त्र मात्र योग्यतावाले जीवको ही पढ़ना चाहिये। अन्यथा जिस अभिमानको निकालना है वही बढ़ जाता है और तैरनेके बदले डूबना पड़ता है। अतः मात्र गुरुगमसे ही मार्ग कहा गया है। जैसे जैसे आत्माके अनंत गुण प्रकट होते हैं वैसे वैसे अहंकार मिटकर भक्ति, विनयभाव प्रकट होते हैं।
ता.४-५-३३ जब अत्यंत दु:खसे पीड़ित हों, कोई उपाय न हो तब शरण किसकी? आत्माकी। अपना आत्मा ही खरा है। यह सब संयोग हैं-सर्व संयोग हैं। वेदना, दुःख चाहे जैसा आवे तब भी यह समझें कि यह मेरा स्वरूप नहीं है, मेरे स्वरूपसे भिन्न है और समय पकने पर चला जायेगा। यह पूर्वकृत कर्मोंका फल है। अब सावधान रहना है। एक आत्माकी उपासना करें । अन्य सब तो ऋण संबंधसे मिले हैं। किसीसे प्रीति, माया न करें, ये विभाव तो नाशवानकी ओर ले जाते हैं। यह देह या कोई भी मेरा स्वरूप नहीं है। मैं भिन्न हूँ। मेरा स्वरूप ज्ञानीने जाना और बताया वैसा है। यह एकमात्र श्रद्धा रखें और इसीमें स्थिर रहें।
संसारके परिचित जीवों सगे-संबंधियोंको मात्र ऊपरसे मिलें, पर उनमें वृत्तिको जरा भी न रोकें । संसारमें असंख्य लोग हैं । कुछकी पहचान हुई, संयोग हुआ जिससे क्या तन्मय हो जाना? अपने आत्माको भूल जाना? यों तो अनेक उत्तम बड़े लोग हैं, जिन्हें हम पहचानते भी नहीं। इसलिये किसी पर मोह, राग या द्वेष न करें। सब पर समान दृष्टि रखें।
परमज्ञानी कृपालुदेव पर सद्गुरुके रूपमें हृदयपूर्वक जितना हो सके उतना भाव करें। ये ही आत्माके सर्वस्व हैं, ऐसा आजन्म मानें। अन्य अनेक देवोंको छोड़कर एकमात्र इनमें ही सतत वृत्तिको पिरोयें और इनसे ही प्रीति जोड़ें।
ता. १०-५-३३ समकित प्राप्त करनेके लिये ममता छोड़नी चाहिये । ममता कैसे छूटे ? समता भावसे । समता कैसे आये? सत्पुरुषकी यथातथ्य पहचान हो तब समता आती है। फिर अपने आत्माकी पहचान हो तो वह सबसे भिन्न है ऐसा ज्ञात होता है, संयोग आदिकी इच्छा नहीं करता और परभावमें नहीं जाता; इसके लिये सदा जाग्रत रहना चाहिये । वह किस प्रकार रहे ? पुरुषार्थ करनेसे । जैसे अनेक काम, धंधेके लिये करते हैं, वैसे ही इस आत्माके लिये उद्यमशील बन जाना चाहिये। देह आदि दूसरोंका काम करता रहता है यह कैसी मूर्खता है! अब अपना करना चाहिये।
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