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________________ उपदेशसंग्रह-४ ४०३ ता.३०-१०-३२ इन्द्रियोंके सुख सच्चे सुख नहीं हैं, पर दुःख हैं। ऐसा क्यों? सुखको दुःख कहा यह तो विरोध हुआ। समाधान यों है कि इन्द्रियविषयोंके परिणाम दुःखरूप हैं। स्वाद रोगका कारण है, इसी प्रकार भोग भी रोगका घर है। प्रत्येक प्रकारके इन्द्रियसुख मृगतृष्णाके पानी जैसे हैं, उनसे संतोष नहीं होता तथा उनका पूर्ण उपभोग भी नहीं हो सकता। आत्मसुख इससे उलटा है, वह आत्माको सच्ची शांति देता है और उसका परिणाम भी अति सुखमय होता है। आत्मा सब पदार्थोंसे भिन्न है, अरूपी है। यह न हो तो सब मुर्दे हैं, अतः यह है। ज्ञानी उसके साक्षी हैं। अतः इसे माने और इसके सिवाय परमें वृत्तिको न लगायें। ज्ञानीकी आज्ञा है कि गहरे उतरकर विचार कर, मनको विषय-विकारसे दूर खींच ले। इन क्षणिक परद्रव्योंमें तो अनादिकालसे रहा है और दुःख प्राप्त किया है। अब जाग्रत हो जा और अपने सच्चे स्वरूपको समझ, ध्यान कर तो आत्माकी पहचान होगी। पर यह त्याग-वैराग्य आने पर ही संभव है। वह न हो और परमें वृत्ति हो तो आत्मज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। संसार अनंत आत्माओंसे भरा हुआ है। वे सब परपरिणतिमें पड़े हुए हैं। उनमें से थोड़े ही लोगोंको पूर्व पुण्यसे सत्संगतिका लाभ मिला है। अतः इस दुर्लभ योगको सार्थक कर लें। आत्मा ही सत्य है, अन्य सब तो नाशवान है, समय आने पर नष्ट होते हैं। ज्ञानियोंने आत्माको देखा है। उनकी पहचान द्वारा आत्माको पहचानें। ता. ३१-१०-३२ समकिती और मिथ्यात्वी दोनों पंचेन्द्रियके विषयभोग भोगते हों तो ऊपरसे तो समान ही लगते हैं। पर ज्ञानीको भेद दिखायी देता है, अन्यको तो वह भेद दिखायी नहीं देता। पर दोनों समान हो सकते हैं क्या? नहीं हो सकते। समकितीकी समझमें अंतर है। वह वस्तुको वस्तुके रूपमें देखता है। मिठाईकी थाली भरी हो और दोनों भोजन करते हों तो भी दोनोंकी दृष्टिमें अंतर है। फिर उसका वमन हो जाय तो दूसरेको ग्लानि हो आती है, जबकि समकिती दोनों स्थितिमें समभाव रखता है; और इसीलिये भोगते हुए भी नहीं भोगता, अर्थात् उसमें लुब्ध नहीं होता। उसे समभाव है। इसी प्रकार प्रत्येक विषयमें समकितीकी दृष्टि आत्माकी ओर रहती है और अन्यसे वह भिन्न है ऐसा जानता है। वह बंध और मोक्षको समझता है। उदय क्या है, यह जानता है। उसे इच्छा, उपाधि नहीं है। इस प्रकार मिथ्यात्वी और समकितीके परिणाममें बहुत अंतर है। मिथ्यात्वीको मान-अपमान, अच्छा-बुरा, राग-द्वेष, हर्ष-शोक तथा वासना है। समकितीको कोई गाली दे दे तो भी ऐसा समझता है कि आत्माको गाली कहाँ लगती है? ये तो भाषाके पुद्गल हैं। ऐसे ही प्रत्येक प्रसंगमें वह जाग्रत रहता है और यों उसके भाव आत्माकी ओर होनेसे वह कर्मसे मुक्त होता है। जबकि मिथ्यात्वी तप करते हुए भी बँधता है। ___ समकिती जीव पश्चात्ताप करता है पर खेद नहीं करता। जो हुआ वह अज्ञानसे हुआ, यों यथातथ्य देखता है और पुनः ऐसा न हो पाये यों सोचता है। जैसे एक व्यक्ति पूरी रात अंधेरेमें भटका हो और सूर्योदय होने पर मार्ग मिल जाय तब सोचता है कि मैं पूरी रात व्यर्थ भटका! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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